ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो
मिट्टी की सोंधी महक के साथ पहली जुलाई का आना
कितना सुखद होता था । पूरे दो महीने की छुट्टी के बाद स्कूल जाना हर बच्चे को पसंद
होता था, सुबह जैसे किसी किसी बागीचे में चिड़ियों के चहकने की आवाज़ आती है ठीक
वैसे ही स्कूल और खेल के मैदान चहकने लगते थे। छाता लगाकर पैदल स्कूल जा रहा हूँ अपने भाई के साथ! आज दो महीने
की छुट्टी के बाद स्कूल का पहला दिन है! खूब सारे दोस्त,खूब सारी बारिश, कीचड सने पैर और सारे
पुराने टीचर्स के साथ एक दो नए भी! बस्तों से किताबें कम बातें ज्यादा निकल रही
हैं! न कोई पढ़ने के मूड में है न कोई पढाने के! एक नया लड़का भी दाखिल हुआ है क्लास में.. जो आगे
चलकर मेरा बहुत अच्छा दोस्त बनने वाला है!
अब देखता
हूँ कि एक जुलाई को तो बच्चे नयी क्लास के
तीन चैप्टर पूरे कर चुके हैं और वीकली टेस्ट की तैयारी में है! अब तो बच्चों और अभिभावक दोनों को समझ ही नही आता गर्मी की
छुट्टीयां कब आयीं कब निकल गईं। स्कूल भी किसी कारपोरेट के ऑफिस से कम नही स्कूल
तो वो विद्धयामंदिर था जहां हम नैतिक शिक्षा पढ़ते थे ! अब तो हिन्दी मीडियम के
बच्चे को दोयम दर्जे का समझा जाता है।
कितना कुछ बदल रहा है अब बच्चे खिलखिला कर हंसते भी तो नही है। शाम के वक़्त भी खेल के मैदानों मे कम ही बचपन दिखता है। बच्चे या तो सुरक्षा के नाम पर घरों मे कैद है या आधुनिकता के जंजाल टीवी वीडियो गेम मे ही लगे रहते है। आधुनिकता की होड में गुम होता बचपन “बचपन हर गम से बेगाना होता है, बच्चे मन के सच्चे, हम भी अगर बच्चे होते जैसे मनमोहक प्यारे गीत हमने फिल्मों में देखे और सुने हैं। बचपन की कल्पना कर ही एक अजीब सा एहसास होता है । स्कूल के वो उधम वाले दिन, शाम को माँ पापा के साथ खेलना पर दिनों दिन बढ रही व्यस्तता और आधुनिकता की अंधी दौड में माहौल बदल रहा है। हमारे पास अपने बच्चों के लिए अब समय ही नहीं है, मुरलीधर माखनचोर कान्हा के बदले अब हमें फैंटेसी किरदार लुभा रहे हैं, बचपन की बदलती शक्ल में अब मासूमियत और अल्हडपन खोता जा रहा है। रोजाना टीवी और अखबारों पर नई प्रतिभाओं का उदय होने की जानकारी तो मिलती है पर कई घटनाएं बुध्दजीवी वर्ग को झकझोर देती हैं। मासूम से मन में अब आधुनिकता अंगडाई ले रही है।जब बचपन याद आता है तो हमजोलियों स्कूल और शरारतों का इतिहास मन के किसी कोने
अमित कुमार शुक्ला
कितना कुछ बदल रहा है अब बच्चे खिलखिला कर हंसते भी तो नही है। शाम के वक़्त भी खेल के मैदानों मे कम ही बचपन दिखता है। बच्चे या तो सुरक्षा के नाम पर घरों मे कैद है या आधुनिकता के जंजाल टीवी वीडियो गेम मे ही लगे रहते है। आधुनिकता की होड में गुम होता बचपन “बचपन हर गम से बेगाना होता है, बच्चे मन के सच्चे, हम भी अगर बच्चे होते जैसे मनमोहक प्यारे गीत हमने फिल्मों में देखे और सुने हैं। बचपन की कल्पना कर ही एक अजीब सा एहसास होता है । स्कूल के वो उधम वाले दिन, शाम को माँ पापा के साथ खेलना पर दिनों दिन बढ रही व्यस्तता और आधुनिकता की अंधी दौड में माहौल बदल रहा है। हमारे पास अपने बच्चों के लिए अब समय ही नहीं है, मुरलीधर माखनचोर कान्हा के बदले अब हमें फैंटेसी किरदार लुभा रहे हैं, बचपन की बदलती शक्ल में अब मासूमियत और अल्हडपन खोता जा रहा है। रोजाना टीवी और अखबारों पर नई प्रतिभाओं का उदय होने की जानकारी तो मिलती है पर कई घटनाएं बुध्दजीवी वर्ग को झकझोर देती हैं। मासूम से मन में अब आधुनिकता अंगडाई ले रही है।जब बचपन याद आता है तो हमजोलियों स्कूल और शरारतों का इतिहास मन के किसी कोने
अमित कुमार शुक्ला
से
निकल कर आंखों के सामने तैरने लगता है, बदलते
दौर में क्या हमें अपना वही पुराना बचपन कहीं दिखता है।
आधुनिकता
ने बचपन पर पिछले डेढ दशक में काफी अतिक्रमण कर लिया है। जमाना अब टीवी कम्यूटर
इंटरनेट का है और जिसने हमें और हमारे बच्चों आलसी और तनावयुक्त बनाया हुआ है।
बचपन अब घर में कैद होने लगा है। फुर्सत मिलती है तो घर में ढूंढने पर बचपन मिलता
नहीं और उसका एक अलग ही रुप हमारे सामने होता है
जिसे
देखकर लगता है कि यदि थोडा भी समय इस बचपन को संवारने में दिया होता तो अपने बच्चे
के बचपन को बचाया जा सकता था। टीवी पर खासकर टैलेंट हंट शो में बच्चों की प्रतिभा
देखकर मन के एक कोने में यह इच्छा अंगडाई तो लेती है कि क्या हमारे नौनिहाल भी
इसी तरह अपने खानदान का नाम रोशन करेंगे। यह हम सोचते तो हैं पर इसके लिए अपने बच्चों
को हम समय ही नहीं दे पाते। खोया वक्त कभी वापस नहीं आता और बचपन गुजर जाने के
बाद उसे लौटाया नहीं जा सकता। यह हमें अच्छी तरह से समझना होगा और इसे अपने दैनिक
दिनचर्या में शामिल करना होगा। मशहूर गजल गायक जगजीत सिंह ने यह गजल बरसों पहले
गाई थी जिसे आज भी सुनकर हमें अपना बचपन याद आ जाता है। ”ये
दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो
भले
छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर
मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो
कागज की कश्ती,वो बारिश का पानी
इस
गजल को सुनकर भी जिसे अपना बचपन याद न आए उसने शायद बचपन को ठीक से समझा भी
न
होगा। दूसरी तरफ बढती आबादी और फिजूल खर्ची के चलते कमाने खाने की चिंता ने बच्चों
को वक़्त से पहले ही बड़ा कर दिया ।