बुधवार, 1 जुलाई 2015

                  ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो

मिट्टी की सोंधी महक के साथ पहली जुलाई का आना कितना सुखद होता था । पूरे दो महीने की छुट्टी के बाद स्कूल जाना हर बच्चे को पसंद होता था, सुबह जैसे किसी किसी बागीचे में चिड़ियों के चहकने की आवाज़ आती है ठीक वैसे ही स्कूल और खेल के मैदान चहकने लगते थे। छाता लगाकर पैदल स्कूल जा रहा हूँ अपने भाई के साथ! आज दो महीने की छुट्टी के बाद स्कूल का पहला दिन है! खूब सारे दोस्त,खूब सारी बारिश, कीचड सने पैर और सारे पुराने टीचर्स के साथ एक दो नए भी! बस्तों से किताबें कम बातें ज्यादा निकल रही हैं! न कोई पढ़ने के मूड में है न कोई पढाने के! एक नया लड़का भी दाखिल हुआ है क्लास में.. जो आगे चलकर मेरा बहुत अच्छा दोस्त बनने वाला है!
अब देखता हूँ कि एक जुलाई को तो बच्चे नयी क्लास के तीन चैप्टर पूरे कर चुके हैं और वीकली टेस्ट की तैयारी में है! अब तो बच्चों और अभिभावक दोनों को समझ ही नही आता गर्मी की छुट्टीयां कब आयीं कब निकल गईं। स्कूल भी किसी कारपोरेट के ऑफिस से कम नही स्कूल तो वो विद्धयामंदिर था जहां हम नैतिक शिक्षा पढ़ते थे ! अब तो हिन्दी मीडियम के बच्चे को दोयम दर्जे का समझा जाता है।

कितना कुछ बदल रहा है अब बच्चे खिलखिला कर हंसते भी तो नही है। शाम के वक़्त भी खेल के मैदानों मे कम ही बचपन दिखता है। बच्चे या तो सुरक्षा के नाम पर घरों मे कैद है या आधुनिकता के जंजाल टीवी वीडियो गेम मे ही लगे रहते है। आधुनिकता की होड में गुम होता बचपन “बचपन हर गम से बेगाना होता है, बच्‍चे मन के सच्‍चे, हम भी अगर बच्‍चे होते जैसे मनमोहक प्‍यारे गीत हमने फिल्‍मों में देखे और सुने हैं। बचपन की कल्‍पना कर ही एक अजीब सा एहसास होता है । स्कूल के वो उधम वाले दिन, शाम को माँ पापा के साथ खेलना पर दिनों दिन बढ रही व्‍यस्‍तता और आधुनिकता की अंधी दौड में माहौल बदल रहा है। हमारे पास अपने बच्‍चों के लिए अब समय ही नहीं है, मुरलीधर माखनचोर कान्‍हा के बदले अब हमें फैंटेसी किरदार लुभा रहे हैं, बचपन की बदलती शक्‍ल में अब मासूमियत और अल्‍हडपन खोता जा रहा है। रोजाना टीवी और अखबारों पर नई प्रतिभाओं का उदय होने की जानकारी तो मिलती है पर कई घटनाएं बुध्‍दजीवी वर्ग को झकझोर देती हैं। मासूम से मन में अब आधुनिकता अंगडाई ले रही है।जब बचपन याद आता है तो हमजोलियों स्‍कूल और शरारतों का इतिहास मन के किसी कोने
अमित कुमार शुक्ला
से निकल कर आंखों के सामने तैरने लगता है, बदलते दौर में क्‍या हमें अपना वही पुराना बचपन कहीं दिखता है।
आधुनिकता ने बचपन पर पिछले डेढ दशक में काफी अतिक्रमण कर लिया है। जमाना अब टीवी कम्‍यूटर इंटरनेट का है और जिसने हमें और हमारे बच्‍चों आलसी और तनावयुक्‍त बनाया हुआ है। बचपन अब घर में कैद होने लगा है। फुर्सत मिलती है तो घर में ढूंढने पर बचपन मिलता नहीं और उसका एक अलग ही रुप हमारे सामने होता है
जिसे देखकर लगता है कि यदि थोडा भी समय इस बचपन को संवारने में दिया होता तो अपने बच्‍चे के बचपन को बचाया जा सकता था। टीवी पर खासकर टैलेंट हंट शो में बच्‍चों की प्रतिभा देखकर मन के एक कोने में यह इच्‍छा अंगडाई तो लेती है कि क्‍या हमारे नौनिहाल भी इसी तरह अपने खानदान का नाम रोशन करेंगे। यह हम सोचते तो हैं पर इसके लिए अपने बच्‍चों को हम समय ही नहीं दे पाते। खोया वक्‍त कभी वापस नहीं आता और बचपन गुजर जाने के बाद उसे लौटाया नहीं जा सकता। यह हमें अच्‍छी तरह से समझना होगा और इसे अपने दैनिक दिनचर्या में शामिल करना होगा। मशहूर गजल गायक जगजीत सिंह ने यह गजल बरसों पहले गाई थी जिसे आज भी सुनकर हमें अपना बचपन याद आ जाता है। ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज की कश्‍ती,वो बारिश का पानी
इस गजल को सुनकर भी जिसे अपना बचपन याद न आए उसने शायद बचपन को ठीक से समझा भी
न होगा। दूसरी तरफ बढती आबादी और फिजूल खर्ची के चलते कमाने खाने की चिंता ने बच्चों को वक़्त से पहले ही बड़ा कर दिया ।


सोमवार, 2 मार्च 2015

                                                                           

                                                                                           I am Avijit‬


वो और होंगे जो कहते है , नाम का क्या
मेरा नाम अविजित ही, ये नाम ही तमाचा है

वो रब नहीं उनके मन मे , वो इंशान क्या
जो है इंशान के तन मे , वो एक पिसाचा है

वो क्या जानेगें दुनिया को , रब का क्या
इस रब के नाम पर सियासत का एक तमाशा है

वो सियासत को नही जाने ,नही समझे सेवा क्या
खुशहाल आवाम ही राजनीत की सच्ची परिभाषा है

वो और होंगे जो कहते है , नाम का क्या 
मेरा नाम अविजित ही, ये नाम ही तमाचा है 


"कट्रटरवादियों के खिलाफ लगातार अपने ब्‍लॉग के जरिये आवाज उठाने वाले अवजिीत रॉय की बांग्‍लादेश में  सरेराह हत्‍या पर'' 

सोमवार, 2 फ़रवरी 2015

            मुनव्वर राना


हम दोनों में आँखें कोई गीली नहीं करता!
ग़म वो नहीं करता है तो मैं भी नहीं करता!!

मौक़ा तो कई बार मिला है मुझे लेकिन!
मैं उससे मुलाक़ात में जल्दी नहीं करता!!

वो मुझसे बिछड़ते हुए रोया नहीं वरना!
दो चार बरस और मैं शादी नहीं करता!!

वो मुझसे बिछड़ने को भी तैयार नहीं है!
लेकिन वो बुज़ुर्गों को ख़फ़ा भी नहीं करता!! ( बुज़ुर्गों = वडिलधारे, ख़फ़ा = नाराज )

बुधवार, 28 जनवरी 2015

                                           आशियाना 

                                                    इंदुमती का दसवां पन्ना 


अब वक़्त आ गया था ठौर ठिकाना बदलने का फिर कुछ छूटेगा और शायद कुछ टूटे भी ठिकाने बदलते वक़्त अक्सर कुछ ना कुछ छूटता है या टूटता है, मै चाहता था ठिकाना भी बदल जाय और कुछ टूटे भी ना ही ना हि कुछ छूटे, पर करता भी क्या उपाध्याय जैसा खाँटी इलाहाबादी तो छूट ही रहा था, उपाध्याय का बाटीचोखा, वो पुरबिया भौकाल, कोहबर की शर्त की कहानी ये सब भी मेरा हिस्सा था, इंदुमती के साथ यूँ ही लॉज छोड़ देना मेरे लिए आसान नही था उपाध्याय के बकैती की जैसे आदत थी, कई बार सोचता की क्या उपाध्याय जैसा कोई पड़ोसी होगा जो मुझे बिना पूंछे खाना ना खाये, पर अब फैसले पर अंतिम मोहर लग चुकी थी जाना तय था, उपाध्याय के साल भर के दाना पानी पर किसी चार पराठे भारी हो रहे थे, डॉ साब को भी बताना था और इस महीने का किराया भी तो देना था,
अगली सुबह डॉ साब के घर पहुँच गया वो लॉज मे ही ग्राउंडफ्लोर मे रहते थे, हड़िया के पास किसी गाँव मे उनका अपना अस्पताल था, तो अक्सर सबेरे जल्दी ही निकल जाते थे तो जब भी उनसे मिलना हो तो सबेरे जल्दी ही जाना पड़ता था महीने की हर छःतारीख को डॉ साब मुलाक़ात होती थी मेरा किराया देने का दिन था एक बार जब मै छःतारीख को डॉ साब से मिला तो अगली सुबह डॉ साब खुद मेरे पास आकार बोले अमित कैसे हो कोई परेशानी हो तो बता देना पैसों की जरूरत तो नही है, मै समझ सकता था हर महीने छः तारीख को किराया देता था इस बार नही दे पाया तो शायद डॉ साब को लगा हो की मेरे पास पैसे नही है, मै बोला नही सर अभी है एक दो दिन मे घर जाऊंगा तो...
ये सब छूटने वाला था क्या कोई ऐसा ही आगे भी मिलने वाला है जो किराया न मिलने पर खुद पैसे देने आ जाए खैर जो भी हो अब जाना तो है ही या अगर यहीं रहना है तो इंदुमती का मेरे कमरे मे आना नही होगा जो अब मेरे लिए मुश्किल हो रहा था, डॉ साब अखबार के साथ उलझे हुये थे मेरी तरफ देख बोले आओ अमित कैसे हो कहकर फिर पेपर मे उलझ गए और वही टीवी देखने लगा एक बाबा न्यूज चैनल मे भविष्य बता रहे थे, इतने मे ही डॉ साब की बिटिया गुनगुन आयी और अपने पापा को साथ ले गयी शायद उसकी मम्मी ने किसी काम से बुलाया होगा ,डॉ साब अंदर गए तो गुनगुन की माँ उनसे बोल रही थी की इस लड़के से बोल दो की कमरा खाली कर दे या वो लड़की जो मित्तल साब के यहाँ रहती है उसका आना जाना बंद कराये ये सब नही चलेगा ये सब बात आज कर ही लीजिये , उस लड़की चाल चरित्र मुझे ठीक नही लगता ये पूरी बात मै साफ सुन रहा था डॉ साब बोल रहे थे धीरे बोलो वो बाहर ही बैठा है सुनेगा तो क्या कहेगा, कहना क्या उसे भी तो पता चलना चाहिए ना गुनगुन की माँ बोली डॉ साब बोले ठीक है एक चाय उसके लिए भी भेज दो मै बात करता हूँ सब ठीक हो जाएगा , डॉ साब बाहर आकर मेरे पास ही बैठ गए और बोले अमित कैसी चल रही है पढ़ाई और गाँव कब से नही गए , मै बोला सर अभी गया था जल्दी मे ही और पैसे निकाल कर डॉ साब को देते हुये बोला सर ये मेरा किराया है मै कल खाली कर रहा हूँ । डॉ साब ने कोई सवाल नही किया बस शर्म निराशा जैसे भाव जरूर उस वक़्त उनके चेहरे पर थे । तब तक मेरे लिए चाय आ गयी थी जिसे मै बिना पिये ही ऊपर अपने रूम मे चला गया ।
अब उपाध्याय से बताना था जाने के लिए पर जैसे एक डर हो मन मे सामना करने का साहस ही नही था कैसे बोलूँ की अब जा रहा हूँ और क्यो जा रहा हूँ, इसका तो जवाब सही से मेरे पास भी नही था और जो जवाब था वो उपाध्याय भी जानता था पर उसे लगता था इतनी मामूली बात के लिए भला कोई कमरा बदलता है, खैर अब जो भी हो, जाना तो था ही, उपाध्याय से बात करने के लिए उसी के कमरे मे चला गया, का होई रहा है पूरब के बेटा भइया आज खाना वाना न खियाबों का मे मै बोला, उपाध्याय को शायद मेरे जाने की खबर पहले ही थी तभी उपाध्याय बोला हाँ हम चूतिया जो है ससुरे रोज बनाई खियाई और तुम हमसे कुछ पुछ्बो भी नै करो केत्ती देर जाना है, की जब समान लदवाने का टाइम होइएगा तभी बताओगे ससुरे बड़के हरामी हो साल भर हो गया साथ रहते अब जाने के टाइम बताय भी नही रहे हो,उपाध्याय बराबर बोले जा रहा था और मै कुछ कह नही पा रहा था जैसे कोई गुनाह हो गया हो, और उसकी सज़ा सुन रहा हूँ , उपाध्याय का लेक्चर बंद होने वाला नही था तो उपाध्याय को लेकर चौराहे आ गए चाय पीते पीते ही मैंने कहा आज शाम ही खाली करना है कोई ट्राली मंगा लेंगे उसी मे समान रखा कर यहाँ शिफ्ट हो जाते और कौन सा दूर है मे सबेरे शाम आ कर खाना तुमहरे साथय खाएँगे ।
शाम को उपाध्याय ट्राली ले आया और सारा समान, समान क्या तीन बोरी किताबें एक सुटकेश मेज कुर्सी फोल्डिंग बिस्तर गैस सिलेन्डर खाने का कुछ समान एक बोरी मे रखा कर अपने नये कमरे मे जिसके मालिक मिस्टर डिक्रूज थे के यहाँ रख दिया , फिर वापस आकर उपाध्याय के साथ उस रात देर तक टहलते रहे और मटियारा रोड मे ही बाटी चोखा खा कर आ गए अब अगले दिन इंदुमती का समान रखना था। वो भी उपाध्याय ने करा दिया
अब अपने सपनों के साथ हम नये आशियाने मे पहुँच गए थे, हम साथ बस ये नही पता था की ये साथ कितना दूर तक साथ रहेगा, उसी बीच अपने धर्मवीर भारती फैंस क्लब के एक सदस्य की एक लघु कथा इलाहाबाद के एक लोकल अखबार मे छपी और हम अपने को धर्मवीर भारती समझने लगे, और बस किताबों मे उलझ गये इंदुमती ने समझाया भी पर बात समझ नही आई, धर्मवीर भारती फैंस क्लब की बैठक भी अब नियमित हो रहीं थी । एक दिन बैठक के बाद मै और आशीष गंगा किनारे छोटी गोल्ड सुलगा रहे थे तब आशीष ने मुझसे कहा तुम बहुत जल्दी कर रहे हो कुछ चीजों का सही वक़्त मे ना होना जीवन को बदल देता है , मै कुछ समझा नही भाई किस बात के लिए बोल रहे हो , मै बोला आशीष कहने लगा मै उस लड़की की बात कर रहा हूँ जिसके लिए तुमने रूम बदल लिया और अब उसी के साथ रह रहे हो ,मै बोला भाई जी आप जैसा समझ रहे हो वैसा कुछ है नही और वो मेरी एक दोस्त है जैसे आप , हम एक रूम मे नही एक लॉज अलग अलग कमरों के किरायेदार है, और इस बात के बाद मै शिवकुटी से वापस आ गया हर बार की तरह रुका नही और ना ही आशीष ने रोका इसका ये तो मतलब था की वो भी मेरे रूम बदलने से खुश नही था , वापस आने पर इंदुमती ने पुंछा क्या बात है कल आने वाले थे , नहीं मन नही लगा तो चला आया , तो इंदुमती बोली की मै अभी पढ रही हूँ अगर खाना हो तो बता देना सब्जी रखी है रोटियाँ मै बना दूँगी ,मै बिना कोई जवाब दिये अपने रूम मे आ गया पिछले एक हफ्ते से जब से इस रूम मे आया था तो एक या दो दिन ही मेरे रूम मे खाना बना था वो इंदुमती ने ही बनाया था , रोज का खाना इंदुमती के यहाँ ही होता था , उस दिन रूम मे आने के बाद मैंने तहरी बनाई और खा कर किताब ले कर बैठ गया , मै जब खाने के लिए इंदुमती के पास नही गया तो वो कु छ देर बाद पूछने आई मैंने कहा खा लिया है तहरी बनाई रखी है तुम ले जाओ तुम भी खा लेना, इंदुमती बिना बोले ही अपने रूम मे चली गयी , तब मुझे लग रहा था की इतने सारे लोग गलत नही हो सकते मुझे रूम नही बदलना चाहिए था मेरे और इंदुमती के बीच जुडने से पहले कुछ टूटने की वो पहली आहाट थी जिसे मै उस वक़्त समझ नही पाया था , उस दिन के बाद कई दिनों तक हम दोनों ही अलग अलग खाना बनाते रहे कितने दिन ये ठीक से याद नही है , काफी दिनो बाद जब सिनेमा देखने गए तब कुछ समान्य हुआ, अब इंदुमती भी शाकाहारी हो चुकी थी घर मे तो अंडा बंद हो ही गया था बाहर भी नही खाती थी उस दिन सिनेमा मे जब मै बोला की आमलेट ले आऊ तो उसने कहा वो लाना जो तुम खा सकते हो साथ है तो साथ मे खायेगे इस एक बात ने सारी बातों को पीछे छोड़ दिया लग रहा था अभी इंदुमती को गोद मे उठा लूँ, सिनेमा चल रहा था मै इंदुमती के साथ बैठ गया था और अब इंदुमती अपने उछलते हुए दिल और जैसे किसी शोर से लाल कान और कुछ ज्यादा सजग हो रही थी , मै भी तन कर बैठा हुआ था सिनेमा मे उसी क्रम का विकास चल रहा था इमरान हाशमी जिसके परिपक्व रूप है, जब चुंबन लंबा खिंच गया । तब मुझे पता चला की शर्म से गाल लाल होना तो किताबी बात है । लाल तो कान होते है इंदुमती के कान लाल हो रहे थे, साथ ही तापमान भी बढ़ता ही जा रहा था । अपनी भी एक आँख सिनेमा मे तो एक आँख इंदुमती मे तब महसूस किया इंदुमती भी मेरी तरफ देख रही थी, मै उसकी नाक से निकलती ज़ोर ज़ोर हवा को सुन सकता था । और किसी हल्की सी गलती किसी अनियमितता का इंतज़ार कर रहा जो शायद दोनों के मन मे उमड़ रहे ख्यालों को ज़ाहिर कर देती। नाक से निकलती हवाओं की नज़दीकयां उसके गले के नर्म घ्ंघ्रले बालों को महसूस करना कैसा होगा......??
कुछ देर बाद जब मै जब अपनी सीट से हिला, और कुछ तनाव भरी आवाज़ मे इंदुमती से खाने के लिए पुंछने लगा खाने के लिए कहाँ चलना है । तब वो हंस पड़ी और बोली मुझे लगता है आज तुम घर मे ही खाना पसंद करोगे...............

क्रमश.....