बुधवार, 1 जुलाई 2015

                  ये दौलत भी ले लो ये शोहरत भी ले लो

मिट्टी की सोंधी महक के साथ पहली जुलाई का आना कितना सुखद होता था । पूरे दो महीने की छुट्टी के बाद स्कूल जाना हर बच्चे को पसंद होता था, सुबह जैसे किसी किसी बागीचे में चिड़ियों के चहकने की आवाज़ आती है ठीक वैसे ही स्कूल और खेल के मैदान चहकने लगते थे। छाता लगाकर पैदल स्कूल जा रहा हूँ अपने भाई के साथ! आज दो महीने की छुट्टी के बाद स्कूल का पहला दिन है! खूब सारे दोस्त,खूब सारी बारिश, कीचड सने पैर और सारे पुराने टीचर्स के साथ एक दो नए भी! बस्तों से किताबें कम बातें ज्यादा निकल रही हैं! न कोई पढ़ने के मूड में है न कोई पढाने के! एक नया लड़का भी दाखिल हुआ है क्लास में.. जो आगे चलकर मेरा बहुत अच्छा दोस्त बनने वाला है!
अब देखता हूँ कि एक जुलाई को तो बच्चे नयी क्लास के तीन चैप्टर पूरे कर चुके हैं और वीकली टेस्ट की तैयारी में है! अब तो बच्चों और अभिभावक दोनों को समझ ही नही आता गर्मी की छुट्टीयां कब आयीं कब निकल गईं। स्कूल भी किसी कारपोरेट के ऑफिस से कम नही स्कूल तो वो विद्धयामंदिर था जहां हम नैतिक शिक्षा पढ़ते थे ! अब तो हिन्दी मीडियम के बच्चे को दोयम दर्जे का समझा जाता है।

कितना कुछ बदल रहा है अब बच्चे खिलखिला कर हंसते भी तो नही है। शाम के वक़्त भी खेल के मैदानों मे कम ही बचपन दिखता है। बच्चे या तो सुरक्षा के नाम पर घरों मे कैद है या आधुनिकता के जंजाल टीवी वीडियो गेम मे ही लगे रहते है। आधुनिकता की होड में गुम होता बचपन “बचपन हर गम से बेगाना होता है, बच्‍चे मन के सच्‍चे, हम भी अगर बच्‍चे होते जैसे मनमोहक प्‍यारे गीत हमने फिल्‍मों में देखे और सुने हैं। बचपन की कल्‍पना कर ही एक अजीब सा एहसास होता है । स्कूल के वो उधम वाले दिन, शाम को माँ पापा के साथ खेलना पर दिनों दिन बढ रही व्‍यस्‍तता और आधुनिकता की अंधी दौड में माहौल बदल रहा है। हमारे पास अपने बच्‍चों के लिए अब समय ही नहीं है, मुरलीधर माखनचोर कान्‍हा के बदले अब हमें फैंटेसी किरदार लुभा रहे हैं, बचपन की बदलती शक्‍ल में अब मासूमियत और अल्‍हडपन खोता जा रहा है। रोजाना टीवी और अखबारों पर नई प्रतिभाओं का उदय होने की जानकारी तो मिलती है पर कई घटनाएं बुध्‍दजीवी वर्ग को झकझोर देती हैं। मासूम से मन में अब आधुनिकता अंगडाई ले रही है।जब बचपन याद आता है तो हमजोलियों स्‍कूल और शरारतों का इतिहास मन के किसी कोने
अमित कुमार शुक्ला
से निकल कर आंखों के सामने तैरने लगता है, बदलते दौर में क्‍या हमें अपना वही पुराना बचपन कहीं दिखता है।
आधुनिकता ने बचपन पर पिछले डेढ दशक में काफी अतिक्रमण कर लिया है। जमाना अब टीवी कम्‍यूटर इंटरनेट का है और जिसने हमें और हमारे बच्‍चों आलसी और तनावयुक्‍त बनाया हुआ है। बचपन अब घर में कैद होने लगा है। फुर्सत मिलती है तो घर में ढूंढने पर बचपन मिलता नहीं और उसका एक अलग ही रुप हमारे सामने होता है
जिसे देखकर लगता है कि यदि थोडा भी समय इस बचपन को संवारने में दिया होता तो अपने बच्‍चे के बचपन को बचाया जा सकता था। टीवी पर खासकर टैलेंट हंट शो में बच्‍चों की प्रतिभा देखकर मन के एक कोने में यह इच्‍छा अंगडाई तो लेती है कि क्‍या हमारे नौनिहाल भी इसी तरह अपने खानदान का नाम रोशन करेंगे। यह हम सोचते तो हैं पर इसके लिए अपने बच्‍चों को हम समय ही नहीं दे पाते। खोया वक्‍त कभी वापस नहीं आता और बचपन गुजर जाने के बाद उसे लौटाया नहीं जा सकता। यह हमें अच्‍छी तरह से समझना होगा और इसे अपने दैनिक दिनचर्या में शामिल करना होगा। मशहूर गजल गायक जगजीत सिंह ने यह गजल बरसों पहले गाई थी जिसे आज भी सुनकर हमें अपना बचपन याद आ जाता है। ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज की कश्‍ती,वो बारिश का पानी
इस गजल को सुनकर भी जिसे अपना बचपन याद न आए उसने शायद बचपन को ठीक से समझा भी
न होगा। दूसरी तरफ बढती आबादी और फिजूल खर्ची के चलते कमाने खाने की चिंता ने बच्चों को वक़्त से पहले ही बड़ा कर दिया ।


सोमवार, 2 मार्च 2015

                                                                           

                                                                                           I am Avijit‬


वो और होंगे जो कहते है , नाम का क्या
मेरा नाम अविजित ही, ये नाम ही तमाचा है

वो रब नहीं उनके मन मे , वो इंशान क्या
जो है इंशान के तन मे , वो एक पिसाचा है

वो क्या जानेगें दुनिया को , रब का क्या
इस रब के नाम पर सियासत का एक तमाशा है

वो सियासत को नही जाने ,नही समझे सेवा क्या
खुशहाल आवाम ही राजनीत की सच्ची परिभाषा है

वो और होंगे जो कहते है , नाम का क्या 
मेरा नाम अविजित ही, ये नाम ही तमाचा है 


"कट्रटरवादियों के खिलाफ लगातार अपने ब्‍लॉग के जरिये आवाज उठाने वाले अवजिीत रॉय की बांग्‍लादेश में  सरेराह हत्‍या पर'' 

सोमवार, 2 फ़रवरी 2015

            मुनव्वर राना


हम दोनों में आँखें कोई गीली नहीं करता!
ग़म वो नहीं करता है तो मैं भी नहीं करता!!

मौक़ा तो कई बार मिला है मुझे लेकिन!
मैं उससे मुलाक़ात में जल्दी नहीं करता!!

वो मुझसे बिछड़ते हुए रोया नहीं वरना!
दो चार बरस और मैं शादी नहीं करता!!

वो मुझसे बिछड़ने को भी तैयार नहीं है!
लेकिन वो बुज़ुर्गों को ख़फ़ा भी नहीं करता!! ( बुज़ुर्गों = वडिलधारे, ख़फ़ा = नाराज )

बुधवार, 28 जनवरी 2015

                                           आशियाना 

                                                    इंदुमती का दसवां पन्ना 


अब वक़्त आ गया था ठौर ठिकाना बदलने का फिर कुछ छूटेगा और शायद कुछ टूटे भी ठिकाने बदलते वक़्त अक्सर कुछ ना कुछ छूटता है या टूटता है, मै चाहता था ठिकाना भी बदल जाय और कुछ टूटे भी ना ही ना हि कुछ छूटे, पर करता भी क्या उपाध्याय जैसा खाँटी इलाहाबादी तो छूट ही रहा था, उपाध्याय का बाटीचोखा, वो पुरबिया भौकाल, कोहबर की शर्त की कहानी ये सब भी मेरा हिस्सा था, इंदुमती के साथ यूँ ही लॉज छोड़ देना मेरे लिए आसान नही था उपाध्याय के बकैती की जैसे आदत थी, कई बार सोचता की क्या उपाध्याय जैसा कोई पड़ोसी होगा जो मुझे बिना पूंछे खाना ना खाये, पर अब फैसले पर अंतिम मोहर लग चुकी थी जाना तय था, उपाध्याय के साल भर के दाना पानी पर किसी चार पराठे भारी हो रहे थे, डॉ साब को भी बताना था और इस महीने का किराया भी तो देना था,
अगली सुबह डॉ साब के घर पहुँच गया वो लॉज मे ही ग्राउंडफ्लोर मे रहते थे, हड़िया के पास किसी गाँव मे उनका अपना अस्पताल था, तो अक्सर सबेरे जल्दी ही निकल जाते थे तो जब भी उनसे मिलना हो तो सबेरे जल्दी ही जाना पड़ता था महीने की हर छःतारीख को डॉ साब मुलाक़ात होती थी मेरा किराया देने का दिन था एक बार जब मै छःतारीख को डॉ साब से मिला तो अगली सुबह डॉ साब खुद मेरे पास आकार बोले अमित कैसे हो कोई परेशानी हो तो बता देना पैसों की जरूरत तो नही है, मै समझ सकता था हर महीने छः तारीख को किराया देता था इस बार नही दे पाया तो शायद डॉ साब को लगा हो की मेरे पास पैसे नही है, मै बोला नही सर अभी है एक दो दिन मे घर जाऊंगा तो...
ये सब छूटने वाला था क्या कोई ऐसा ही आगे भी मिलने वाला है जो किराया न मिलने पर खुद पैसे देने आ जाए खैर जो भी हो अब जाना तो है ही या अगर यहीं रहना है तो इंदुमती का मेरे कमरे मे आना नही होगा जो अब मेरे लिए मुश्किल हो रहा था, डॉ साब अखबार के साथ उलझे हुये थे मेरी तरफ देख बोले आओ अमित कैसे हो कहकर फिर पेपर मे उलझ गए और वही टीवी देखने लगा एक बाबा न्यूज चैनल मे भविष्य बता रहे थे, इतने मे ही डॉ साब की बिटिया गुनगुन आयी और अपने पापा को साथ ले गयी शायद उसकी मम्मी ने किसी काम से बुलाया होगा ,डॉ साब अंदर गए तो गुनगुन की माँ उनसे बोल रही थी की इस लड़के से बोल दो की कमरा खाली कर दे या वो लड़की जो मित्तल साब के यहाँ रहती है उसका आना जाना बंद कराये ये सब नही चलेगा ये सब बात आज कर ही लीजिये , उस लड़की चाल चरित्र मुझे ठीक नही लगता ये पूरी बात मै साफ सुन रहा था डॉ साब बोल रहे थे धीरे बोलो वो बाहर ही बैठा है सुनेगा तो क्या कहेगा, कहना क्या उसे भी तो पता चलना चाहिए ना गुनगुन की माँ बोली डॉ साब बोले ठीक है एक चाय उसके लिए भी भेज दो मै बात करता हूँ सब ठीक हो जाएगा , डॉ साब बाहर आकर मेरे पास ही बैठ गए और बोले अमित कैसी चल रही है पढ़ाई और गाँव कब से नही गए , मै बोला सर अभी गया था जल्दी मे ही और पैसे निकाल कर डॉ साब को देते हुये बोला सर ये मेरा किराया है मै कल खाली कर रहा हूँ । डॉ साब ने कोई सवाल नही किया बस शर्म निराशा जैसे भाव जरूर उस वक़्त उनके चेहरे पर थे । तब तक मेरे लिए चाय आ गयी थी जिसे मै बिना पिये ही ऊपर अपने रूम मे चला गया ।
अब उपाध्याय से बताना था जाने के लिए पर जैसे एक डर हो मन मे सामना करने का साहस ही नही था कैसे बोलूँ की अब जा रहा हूँ और क्यो जा रहा हूँ, इसका तो जवाब सही से मेरे पास भी नही था और जो जवाब था वो उपाध्याय भी जानता था पर उसे लगता था इतनी मामूली बात के लिए भला कोई कमरा बदलता है, खैर अब जो भी हो, जाना तो था ही, उपाध्याय से बात करने के लिए उसी के कमरे मे चला गया, का होई रहा है पूरब के बेटा भइया आज खाना वाना न खियाबों का मे मै बोला, उपाध्याय को शायद मेरे जाने की खबर पहले ही थी तभी उपाध्याय बोला हाँ हम चूतिया जो है ससुरे रोज बनाई खियाई और तुम हमसे कुछ पुछ्बो भी नै करो केत्ती देर जाना है, की जब समान लदवाने का टाइम होइएगा तभी बताओगे ससुरे बड़के हरामी हो साल भर हो गया साथ रहते अब जाने के टाइम बताय भी नही रहे हो,उपाध्याय बराबर बोले जा रहा था और मै कुछ कह नही पा रहा था जैसे कोई गुनाह हो गया हो, और उसकी सज़ा सुन रहा हूँ , उपाध्याय का लेक्चर बंद होने वाला नही था तो उपाध्याय को लेकर चौराहे आ गए चाय पीते पीते ही मैंने कहा आज शाम ही खाली करना है कोई ट्राली मंगा लेंगे उसी मे समान रखा कर यहाँ शिफ्ट हो जाते और कौन सा दूर है मे सबेरे शाम आ कर खाना तुमहरे साथय खाएँगे ।
शाम को उपाध्याय ट्राली ले आया और सारा समान, समान क्या तीन बोरी किताबें एक सुटकेश मेज कुर्सी फोल्डिंग बिस्तर गैस सिलेन्डर खाने का कुछ समान एक बोरी मे रखा कर अपने नये कमरे मे जिसके मालिक मिस्टर डिक्रूज थे के यहाँ रख दिया , फिर वापस आकर उपाध्याय के साथ उस रात देर तक टहलते रहे और मटियारा रोड मे ही बाटी चोखा खा कर आ गए अब अगले दिन इंदुमती का समान रखना था। वो भी उपाध्याय ने करा दिया
अब अपने सपनों के साथ हम नये आशियाने मे पहुँच गए थे, हम साथ बस ये नही पता था की ये साथ कितना दूर तक साथ रहेगा, उसी बीच अपने धर्मवीर भारती फैंस क्लब के एक सदस्य की एक लघु कथा इलाहाबाद के एक लोकल अखबार मे छपी और हम अपने को धर्मवीर भारती समझने लगे, और बस किताबों मे उलझ गये इंदुमती ने समझाया भी पर बात समझ नही आई, धर्मवीर भारती फैंस क्लब की बैठक भी अब नियमित हो रहीं थी । एक दिन बैठक के बाद मै और आशीष गंगा किनारे छोटी गोल्ड सुलगा रहे थे तब आशीष ने मुझसे कहा तुम बहुत जल्दी कर रहे हो कुछ चीजों का सही वक़्त मे ना होना जीवन को बदल देता है , मै कुछ समझा नही भाई किस बात के लिए बोल रहे हो , मै बोला आशीष कहने लगा मै उस लड़की की बात कर रहा हूँ जिसके लिए तुमने रूम बदल लिया और अब उसी के साथ रह रहे हो ,मै बोला भाई जी आप जैसा समझ रहे हो वैसा कुछ है नही और वो मेरी एक दोस्त है जैसे आप , हम एक रूम मे नही एक लॉज अलग अलग कमरों के किरायेदार है, और इस बात के बाद मै शिवकुटी से वापस आ गया हर बार की तरह रुका नही और ना ही आशीष ने रोका इसका ये तो मतलब था की वो भी मेरे रूम बदलने से खुश नही था , वापस आने पर इंदुमती ने पुंछा क्या बात है कल आने वाले थे , नहीं मन नही लगा तो चला आया , तो इंदुमती बोली की मै अभी पढ रही हूँ अगर खाना हो तो बता देना सब्जी रखी है रोटियाँ मै बना दूँगी ,मै बिना कोई जवाब दिये अपने रूम मे आ गया पिछले एक हफ्ते से जब से इस रूम मे आया था तो एक या दो दिन ही मेरे रूम मे खाना बना था वो इंदुमती ने ही बनाया था , रोज का खाना इंदुमती के यहाँ ही होता था , उस दिन रूम मे आने के बाद मैंने तहरी बनाई और खा कर किताब ले कर बैठ गया , मै जब खाने के लिए इंदुमती के पास नही गया तो वो कु छ देर बाद पूछने आई मैंने कहा खा लिया है तहरी बनाई रखी है तुम ले जाओ तुम भी खा लेना, इंदुमती बिना बोले ही अपने रूम मे चली गयी , तब मुझे लग रहा था की इतने सारे लोग गलत नही हो सकते मुझे रूम नही बदलना चाहिए था मेरे और इंदुमती के बीच जुडने से पहले कुछ टूटने की वो पहली आहाट थी जिसे मै उस वक़्त समझ नही पाया था , उस दिन के बाद कई दिनों तक हम दोनों ही अलग अलग खाना बनाते रहे कितने दिन ये ठीक से याद नही है , काफी दिनो बाद जब सिनेमा देखने गए तब कुछ समान्य हुआ, अब इंदुमती भी शाकाहारी हो चुकी थी घर मे तो अंडा बंद हो ही गया था बाहर भी नही खाती थी उस दिन सिनेमा मे जब मै बोला की आमलेट ले आऊ तो उसने कहा वो लाना जो तुम खा सकते हो साथ है तो साथ मे खायेगे इस एक बात ने सारी बातों को पीछे छोड़ दिया लग रहा था अभी इंदुमती को गोद मे उठा लूँ, सिनेमा चल रहा था मै इंदुमती के साथ बैठ गया था और अब इंदुमती अपने उछलते हुए दिल और जैसे किसी शोर से लाल कान और कुछ ज्यादा सजग हो रही थी , मै भी तन कर बैठा हुआ था सिनेमा मे उसी क्रम का विकास चल रहा था इमरान हाशमी जिसके परिपक्व रूप है, जब चुंबन लंबा खिंच गया । तब मुझे पता चला की शर्म से गाल लाल होना तो किताबी बात है । लाल तो कान होते है इंदुमती के कान लाल हो रहे थे, साथ ही तापमान भी बढ़ता ही जा रहा था । अपनी भी एक आँख सिनेमा मे तो एक आँख इंदुमती मे तब महसूस किया इंदुमती भी मेरी तरफ देख रही थी, मै उसकी नाक से निकलती ज़ोर ज़ोर हवा को सुन सकता था । और किसी हल्की सी गलती किसी अनियमितता का इंतज़ार कर रहा जो शायद दोनों के मन मे उमड़ रहे ख्यालों को ज़ाहिर कर देती। नाक से निकलती हवाओं की नज़दीकयां उसके गले के नर्म घ्ंघ्रले बालों को महसूस करना कैसा होगा......??
कुछ देर बाद जब मै जब अपनी सीट से हिला, और कुछ तनाव भरी आवाज़ मे इंदुमती से खाने के लिए पुंछने लगा खाने के लिए कहाँ चलना है । तब वो हंस पड़ी और बोली मुझे लगता है आज तुम घर मे ही खाना पसंद करोगे...............

क्रमश.....

शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

                                                                         

                                                                       चाचा नेहरू 


एक चचा जिससे आपका कोई रिश्ता नही ना जाति का धर्म का फिर भी सबके प्यारे चाचा एसे चचा होते है सबके गली मोहल्लों मे शायद आप सबके भी मुहल्ले मे कोई ऐसा चेहरा रहा हो , मेरे गाँव मे भी थे मुन्ना चाचा मेरे जैसे तमाम बच्चों को प्यारे थे बड़ों के बीच वो क्या थे कैसे थे इससे किसी को कोई मतलब नही बस वो बच्चों से प्यार करते थे उनसे हंस कर बात करे कभी टॉफी चॉकलेट खिलते यही सब काफी था मुहल्ले के एक मुन्ना को बच्चों का मुन्ना चाचा बनाने के लिए, एक चीज इन चचा लोगो समान है ये ज़्यादातर लिबरल (उदार) होते है, मै मुन्ना चाचा की कोई कहानी नही सुना रहा हूँ, मेरा मानना ये है की बच्चों का चाचा बनना आसान नही है, तो नेहरू की बहुत सी उपलब्धियों से अलग ये एक असाधारण बात ही है की वो बहुत से बच्चों के चाचा थे और बच्चों को उनमे विश्वास,

आज़ाद भारत का प्रधानमंत्री नेहरू को बनना ही था, गांधी के सपनों का भारत जो बनाना था और नेहरू ने उसकी नीव रखी भी हिंदुस्तान को हिंदुस्थान बनने से रोका अगर उस वक़्त गलती से भी सत्ता संघ जैसी की ताकत के हांथ मे जाती तो देश आज पाकिस्तान की तरह अपनी ही आग मे झुलस रहा होता आज वामपंथी कलमे अगर चल रही है तो वो गांधी और नेहरू के ही सेक्युलर सोच का नतीजा है मुझे पता है आज जो सरकार है उसमे नेहरू और उनके विचार प्रासंगिक नही है पर आजादी के बाद अब तक की हर सरकार ने नेहरू की विरासत को बढ़ाने का काम किया है चाहे वो मण्डल के मशीहा वीपी सिंह रहे हो या जनसंघ के बाजपेयी

नेहरू को अनदेखा करने के लिए आजकल कुछ दक्षिणपंथी पटेल और नेहरू को आमने सामने रख कर पटेल के नाम का लोहा जोड़ रहे है, उनका दावा है की नेहरू पटेल को हटा कर सत्ता मे आए थे, इसी का जिक्र करते हुये पटेल ने लिखा था, आज़ादी के समय मंत्री मण्डल स्वरूप मे चर्चा के समय, नेहरू ने पटेल को एक पत्र एक अगस्त १९४७ को लिखा जिसमे नेहरू कहते है " कुछ हद तक औपचरिकताये निभाना जरूरी होने से मै आपको मंत्री मण्डल मे समलित होने के लिए लिख रहा हूँ इस पत्र का कोई महत्व नही है क्यो की आप मंत्री मण्डल के सुदृढ़ स्तम्भ है, जवाब पटेल ने तीन अगस्त को लिखा "एक अगस्त के पत्र के लिए अनेक धन्यवाद । एक दूसरे के प्रति जो हमारा अनुराग व प्रेम रहा है तथा लगभग तीस वर्षों की हमारी अखंड मित्रता है । उसे देखते हुये औपचारिकता का कोई स्थान नही रह जाता । आशा है मेरी बाकी के जीवन की सेवाएँ आपके अधीन रहेंगी । आपको धेय की सिद्धि के लिए मेरी सम्पूर्ण वफादारी और निष्ठा प्राप्त होगी । 
नेहरू की जगह पटेल को प्रधानमंत्री ना बनाने का जितना दुख दक्षिणपंथी और संघ के लोग जताते है , वैसा पटेल नही सोचते थे वो संघ नही गांधी के सपनों के भारत के हिमायती थे

उस वक़्त के आजाद देशों से भारत की तुलना करे तो समझ आएगा नेहरू का योगदान नेहरू राजनैतिक रूप से मुझे बामपंथी ही लगते रहे , जिस वक़्त नेहरू ने सत्ता संभाली देश का बटवारा धार्मिक रूप से हुआ था ऐसे मे लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को लागू करना इतना आसान नही नही था पर वो साहस नेहरू मे था और उन्होने कर दिखाया। श्यामा प्रसाद मुखर्जी और अंबेडकर जैसे विचरवान लोगों को साथ लेकर संविधान सभा से संविधान लागू करने का सफर भी साहस भरा था
ऐसे थे चाचा नेहरू बच्चे सबकी मन की बात नही सुनते बच्चों तक पहुचने के लिए एक उदार चेहरे और चरित्र की जरूरत है । ये देश नेहरू के योगदान का ऋणी रहेगा

सोमवार, 20 अक्तूबर 2014

                                                                 प्रेमचंद की निर्मला

                                                               इंदुमती  का नौवां पन्ना 

बहुत कुछ बदल रहा था पसन्द नापसंद सब कुछ, अब मै उस दौर मे था जब आप अकेले मे भी बिना आईना देखकर हांथ अपने बालों पर घुमाते है और चेहरा किसी और का नज़र आता है, होता है शायद आपके साथ भी हुआ हो, अब नब्बे के दशक के उदितनारायन, कुमार सानू पसन्द आ रहे थे अकेले बैठे बैठे भी मुसकुराता रहता था, अपने कपड़ों और पहनावे को लेकर तब पहली बार गंभीर हुआ था उसके पहले तो स्लीपर और लोवर मे पूरा इलाहाबाद घूम लेता था कई बार सिनेमा देखने भी लोवर मे ही गया था, इतना कुछ बदल रहा था और मुझे पता नही चला, बस मै भी इन सब बदलावों के साथ बढ़ता जा रहा था जो भी था सब चरम मे था अब किसी का बस नही था उसमे मेरा भी नही अब उपाध्याय की कही बात का भी फर्क नही पड़ता, हाँ अब किताबों के साथ एफ़एम या साउंड धीरे धीरे चलता ही रहता था, किशोर के गाने भी गंभीर हो कर सुने जाते थे,
उस दिन जब ट्रेन चलने लगी तो इंदुमती ने एक प्लास्टिक का थैला पकड़ा दिया, अब ट्रेन चल रही थी तो मैंने ले लिया बिना कुछ पूंछे, पूंछने का कोई मतलब भी नही था जब पहले पूछा था तो बोली थी की कुछ किताबें है, और ड्रेस है जो सिविल लाइंस मे बदलनी है, अब तो समझ आ ही गया था की क्या है बस खोल कर देखने का इंतज़ार था, पर इस बार जितना सोचा था उपहार मे कुछ उससे अधिक ही था कमीज़ अमृता प्रीतम की एक किताब के साथ कार्ड और एक गुलाबी फूल बने कागज़ मे ख़त, अब ख़त को साझा करने का मन नही है, हाँ ख़त मे अमृता प्रीतम की किताब के लिए लिखा था की ये वो पहली कड़ी है जिसने मुझे तुमसे मिलाया ख़त के आख़िर मे एक लाइन थी
"कुछ माहौल जुदा था कुछ अहसास भी जुदा थे 
रुका था वक्त भी, जब तुम हमसे दूर जा रहे थे"
ट्रेन अपनी रफ्तार से बढ़ रही थी महानगरी का इलाहाबाद के बाद अगला स्टोपेज मानिकपुर है पर आम तौर पर ये इलाहाबाद मानिकपुर के बीच कई बार रुकती है पर उस दिन शायद वो भी जल्दी मे थी ढाई घंटे के उस सफर मे ना जाने कितनी बार मैंने उस ख़त को पढ़ा, मानिकपुर स्टेशन मे विवेक पहले से ही मेरा इंतजार कर रहा था विवेक मेरा स्कूल के दिनों का साथी था उसके साथ मै सीधे घर पहुंचा मम्मी पापा से मिला बस मन कहीं और था विवेक से भी ज्यादा बात नही कर पा रहा था , विवेक कुछ लप्पू झन्ना टाइप का था जो छीछा लेदर ज्यादा करते है मम्मी खाना दे रहीं थी तभी वो मम्मी से बोला चाची अब इसकी शादी की कुछ सोचो, वो जितना सरलता से ये बात बोल गया मम्मी उतनी ही गंभीर थी इस विषय को लेकर बस पापा थे जो टालते जा रहे थे और पापा ने वही बात शुरू की हमेशा मेरे आने पर होती थी इस बार पापा जी कुछ कड़ाई के साथ बोल रहे थे की तुम करना क्या चाहते हो जिस तरह तुम्हारी पढ़ाई चल रही है मुझे नही लगता की तुम सीपीएमटी निकाल पाओगे बीएमएलटी क्यो नही कर लेते मै बिना कुछ बोले खाना खा रहा था पापा बोले प्रेमचंद पढ़ कर कोई सीपीएमटी का एक्जाम निकाल पाया है तुम सिर्फ वक़्त बरबाद कर रहे हो "तब कुछ बोला नहीं पर कई बार सोचता हूँ की शायद पापा सही थे" पापा अभी कुछ दिन और इलाहाबाद मे हूँ फिर देखता हूँ कह कर खाने की मेज से चुपचाप निकल लिया,

कब जाना है इलाहाबाद मम्मी ने पुंछा, कल सुबह ही निकलूँगा कोचिंग जाना है कह कर विवेक के साथ बाहर निकाल आया और विवेक को गरियाना शुरू कर दिया,विवेक बोला तो बोला भइया का गलत बोले है हम सब समझ गए है कुछ तो गड़बड़ है पहले तो तुम शाम को आए हमे कोई भाव नही दे रहे हो ऊपर से सुबह की गाड़ी से जा भी रहे ई सब का माजरा है । अब बोलो सच बताना कुछ तो है ना, अच्छा नाम तो बता दो कौन है , नही बे कुछ नही है बस मन नही है और कोचिंग भी है तभी जाना पड़ रहा है, ठीक है भाई न बताओ मुझे आना है इलाहाबाद तो सब समझ लूँगा एक दो दिल रुकूँगा भी तुम्हारे पास, विवेक की सिनेमा वाली आदत बहुत खराब थी दिन मे तीन तीन सिनेमा देख लेता था इसी लिए मै उसके साथ नही जा पाता था, विवेक सिगरेट नही पिलाओगे का बे बस बकैती पेल रहे हो ले कर आया हूँ भाई पर पियेंगे कहाँ चल स्टेशन चलते उधर ही कहीं स्टेशन पहुँच कर मैंने सुबह की ट्रेन का पता किया फिर आगे तालाब के पास जा कर दोनों एक ही सिगरेट मे सुट्टा लगाते रहे, मै था तो विवेक के साथ पर अपने को बिलकुल अकेला महसूश का रहा था विवेक को उसके घर छोड़ कर एक बार फिर तालाब के किनारे बैठा रहा जाने कब ये अकेलापन मुझे अच्छा लगने लगा,

रात भर ठीक से सो नही पाया सुबह चार बजे ही स्टेशन पुहुंच गया, उस दिन स्टेशन आम दिनों से ज्यादा ही साफ था कुछ यात्री प्लेटफॉर्म मे सो रहे थे जैसे वो स्टेशन सिर्फ सोने के लिए आए हों मानिकपुर स्टेशन मे बहुत से ऐसे ही रहते है जो सोने ही आते है स्टेशन मे वो अलग अलग तरह के काम करने वाले होते है कुछ ट्रेन मे समान बेचने वाले कुछ समान निकालने वाले कुछ सफाई वाले और इनकी सुरक्षा के लिए पुलिस थाना भी स्टेशन मे है , स्टेशन के होर्डिंग नए हो रहे थे अब मानिकपुर मे भी अँग्रेजी सीखने वाले आ गए थे ये अलग बात थी वो अपनी दुकान मानिकपुर मे खोल नही पाये पर होर्डिंग्स जरूर लटका गए थे, आज ट्रेन का इंतज़ार परेशान कर रहा था और एक वक़्त था जब मै सोचता था ट्रेन छूट जाये और एक दिन घर मे रुक जाऊँ, एक लंबे इंतज़ार के बाद दादर गोरखपुर एक्स्प्रेस प्लेटफॉर्म पर आ गयी मानिकपुर के कुछ उँगलियों मे गिनती भर कुली ट्रेन की तरफ दौड़े इन तमाम दौड़ते भागते लोगों के बीच मै भी अपने लिए खिड़की के पास वाली एक सीट ढूंढ ली, ट्रेन 

अब मुझे लेकर दौड़ रही थी शायद उसे भी इलाहाबाद का इंतज़ार था,
इलाहाबाद है ही ऐसा शहर की बस मोहब्बत हो ही जाती है, पुरबिया बोली अवध की तहज़ीब कुछ बुंदेलों की गर्मी सब तो था इलाहाबाद मे चौड़ी सड़के जिन्हे देख कर लगता था की आप लखनऊ मे है, पतली गलियाँ जो इलाहाबाद मे होते आपको बनारस का एहसास करा जाती थी सुबह धुंध भरी हल्की ठंढक के साथ दोपहर मे तपती धूप तो शाम अक्षत यवोना की तरह सामने होती थी, बस एक अनोखे मिज़ाज वाला शहर है इलाहाबाद , गाड़ी इलाहाबाद गऊघाट पुल मे आयी तो मै जैसे नींद से जागा और अपना बैग कंधे पर डाल कर गेट के पास खड़ा हो गया, स्टेशन मे मुझे कोई लेने नही आने वाला था न ही कभी कोई आया था पर इस बार शायद किसी को तलाश कर रहा था,
कमरे का दरवाजा खोल ही रहा था की शुभचिंतक उपाध्याय आ गए जन्मदिवस की बधाई देने लगे और बोले की बहुत बड़े वालों हो मे कल बताया भी नही और निकल लिए चलो आज खाना मेरे साथ ही खा लेना पर शाम को कुछ प्रोग्राम बना लेना बेटा सस्ते मे नही निपटोगे, की चेतावनी के साथ बड़े भइया गये।

शाम को कोचिंग के बाद चौराहे पर चाय पी रहा था सुबह से अब तक कई जगह कमरे की तलाश कर चुका था पर कुछ ठीक समझ नही आया था, तब तक इंदुमती भी आ गयी थी, कब आए हो घर से, इंदुमती ने पुछा सबेरे ही आ गया था भइया एक चाय और दे दो चाय पीते ही मैंने उसे बताया की आज कई जगह कमरे के लिए गया पर कुछ समझ नही आया कटरा मे तो मिल रहा था पर दूर बहुत है, हम समान बदलने के झंझट से बचने के लिए पास मे ही चाहते थे, इंदुमती बोली चलो कोई नही एक दो दिन मे देख लेना कहीं न कहीं मिल ही जाएगा पास रहेगा तो बेहतर ही है, चाय खत्म करके हम किताबों की दुकान मे खड़े थे, कमरे को ले कर बात हो ही रही थी तो मैंने दुकान वाले से पुछा गुरु कोई कमरा तो नही मिल जायेगा यहीं कहीं आस पास दो चाहिये एक ही जगह हम दोनों को चाहिये, दुकान वाला बोला मिल तो जायेगा पर चार पाँच दिन लगेंगे दुकान के ऊपर वाले ही है एक तो खाली है एक खाली होना है जिस दिन हो जाएगा आ जाइए मै आज किराए की बात कर लेता हूँ , आप कल आ जाये बात करा देता हूँ ,

हम वापस अपने लॉज आने लगे इंदुमती बोली रात का खाना बनाओगे या मै ले कर आ जाऊँ नही आज उपाध्याय के साथ खाना है , खाना क्या है उसे लेकर कहीं बाहर जाना है खाने, चलते चलते मैंने इंदुमती से कहा जब तक कमरा बदलते नही है तब तक इस बारे मे किसी से कोई बात ना करना मित्तल साब को तो बता ही दिया होगा, मै कल डॉ साब को बोल दूंगा, इंदुमती बोली तो मेरे साथ कब चलोगे, मै बोला कहाँ चलना है, अभी बर्थडे तो हमने मनाया ही नही और आज तो कुछ ठीक से बात भी नही हो पायी इंदुमती बोली, हो जाएगी वो भी हो जाएगी और मै क्या बताऊंगा राजकुमारी जो बोलेंगी वही होगा तो कल सुबह मिलना फिर बात करते है , अब चलता हूँ उपाध्याय बैठा होगा उसे लेकर जाना है
उपाध्याय रुद्राक्ष की माला और अपनी कुछ पत्थरो वाली अंगूठियाँ उतार कर तैयार थे, चलबों गुरु हाँ भाई चलने के लिए ही तो इंतजार कर रहे थे, मै बोला ई सब का है मे ई माला अंगूठी काहे उतार दिया, अब आज अंडा खाना है तो ई सब थोड़े पहिनेगे उपाध्याय बोला, तुमसे किसने कहा की अंडा खाना है मै तो नही खाता अंडे उपाध्याय ज़ोर से हँसा और कहा अब हमसे ई पंडिताई ना पेलो हम देखे है तुम्हें अंडे की दुकान मे कई बार ऊ मैडम के साथ अब हमहिन मिले है चूतिया बानवेन का , मै उपाध्याय को समझाता रहा की मै नही खाता वो राधा खाती है तो उसी के साथ दुकान मे देखा हो पर वो विश्वास करने के पक्ष मे था ही नही और वो कभी नही माना उसे हमेशा लगता था की मै चुरा कर अंडे खाता हूँ उपाध्याय की पसंद के हिसाब स उस दिन पीएचक्यू के पास एक ढाबे मे खाना खाया उपाध्याय वहाँ भी नाराज़ हुआ जब मै अंडा की जगह अपने लिए कोफ़्ता मंगा लिया खाने के बाद उपाध्याय जी ने प्रेमचंद की निर्मला उपहार मे दी निर्मला मुझे प्रेमचंद की रचनाओ मे सबसे ज्यादा पसंद थी

वापस आ कर कॉफी हाउस मे कॉफी और सिगरेट सुलगाई उपाध्याय थोड़ा गंभीरता के साथ वो लड़की भाई आपके कमरे मे आती है शायद डॉ साब और आंटी जी को ठीक नही लगता मुझसे कहा है की मै आपसे बात कर लूँ और लॉज मे कोई लड़की ना आए ये ध्यान रखे, मैंने कहा परेशान ना हो भाई कल मै बात कर लूँगा डॉ साब से और हो सकेगा तो रूम भी बदल लूँगा फिर हम अपने लॉज चले आए

अगली सुबह इंदुमती लॉज मे फिर आ गयी अब मै उसे मना भी नही कर सकता था, वो आते ही सिर हिला कर पुछा कैसे हो और आंखो और हांथ से इशारा करते हुये चाय के लिए पुछा तो नहीं मे सिर हिला दिया वो बिना कुछ बोले ही चाय का पानी गैस मे रख कर मिल्क पाउडर मिलाने लगी कुछ गुनगुना नही रही थी जब चाय ले आयी तो चाय पीते हुये मैंने पुछा - "तो राजकुमारी कहाँ चलना है कुछ सोचा नही इस बार तुम बताओगे बर्थड़े तुम्हारा था, मै चाय का कप मेज मे रखते हुये बोला मै तो चाहता हूँ की तुम यही रहो और ऐसे ही दिन भर चाय पीते है, इंदुमती ने मेरा सर अपनी गोद मे रख लिया और माथे को चूम कर बोली तो ठीक है खाना भी यहीं बना लूँगी पर कोचिंग तो जाना है ना, अरे राजकुमारी कोई नही फिर कभी अभी रूम तो बदल ले फिर तो रोज तुम्ही को बनाना है , इंदुमती ने मुझे उठा कर बैठा दिया और बोली तो ये बात है मै नही बनाने वाली रोज का खाना हाँ चाय मिल सकती है वो भी कभी कभी चलो ठीक है अभी तो बना लो, वो बोली हाँ वो किताब के दुकान वाले भइया मिले थे तो बोले है की तुम बात कर लो और कल से आ सकते है आप लोग आज वो दूसरा वाला रूम भी खाली हो जाएगा

सोमवार, 6 अक्तूबर 2014

                                                                        हैप्पी बर्थडे 

                                               इंदुमती  का आठवां पन्ना 


इंदुमती को घर के पास छोड़ा मित्तल साब अखबार वाले के पास खड़े कुछ बातें कर रहे थे मेरी मित्तल साब से कोई मुलाक़ात नही थी फिर भी मैंने औपचारिकता बस मित्तल साब से नमस्कार कर लिया और उनका जवाब भी ऐसा ही था जैसे वो अभिवादन का जवाब देना नही चाहते हों पर फिर भी ये दूसरी बार मै उन्हे नमस्कार ठोक रहा था इंदुमती सीधे गेट के अंदर चली गयी , इस बार पलटकर कुछ कहा नही और मै भी अपने लाज चला गया, अब दीपक भाई की थ्रीजी वापस करने जाना था, पहले लगा की नहा कर सो जाता हूँ, फिर मन मे आया की अभी वक़्त मे दे आता हूँ नही फिर दुबारा नही मिलेगी, तो बाघंबरी जाना ही ठीक था, सोमवार का दिन था, गुनगुन, सगुन को डॉ साब स्कूल छोडने के लिए बस का इंतज़ार कर रहे थे, सप्ताह का पहला दिन इतवार होता है पर जब कि हमे पाँचवी तक ये बात समझ नही आई , संडे मंडे पहली दूसरी मे ही सीख गए थे, हम हमेशा सोमवार को ही सप्ताह का पहला दिन मानते रहे इतवार की छुट्टी के बाद सोमवार को स्कूल जाना बिलकुल पसंद नही था, हाँ स्कूल पहुँचने के बाद ये नापसंदी हमेशा भूल जाती, स्कूली दोस्तो मे मस्त हो जाते, लंचबॉक्स लंचटाइम की मस्ती सब कुछ ऐसा था की याद आ जाये तो तमाम बड़ी बड़ी बातें बेकार लगती है, वक़्त है ही ऐसा जो हमेशा गुज़र जाने के बाद वापस नही आता।

बाघंबरी से दीपक भाई को हीरोपुक वापस करके अपनी साइकिल से वापस अल्लापुर दीपक भाई रोक रहे थे बोले भी की चलो कचौड़ी खाते है, दीपक भाई के पास जाना हो और बिना कुछ खाये पिये वापस आना ये भी एक उपलब्धि ही थी कुछ लोग इस बात पर गंभीरता से ध्यान रखते है की उनके पास आने वाला बिना कुछ खाये ना जाये , ये वही लोग है जो हम जैसे काहिलों को गालियां देते रहते है, इनकी चर्चा भी अक्सर इसी के आस पास घूमती रहती थी उसके यहाँ गए तो उसने ये खिलाया उसने वो नही खिलाया इलाहाबाद मे तमाम ऐसे लड़के थे खाने पीने को लेकर बहुत गम्भीर रहते थे कल खाने मे क्या बनाना है ये भी उनकी चिंता का विषय होता था, और मै खाना बनाने से बचने के लिए ऐसी मित्रता से बचने की कोशिश कभी नही करता था,

वापस लाज पहुँच कर सो गया पर उपाध्याय जैसे पड़ोसी के होते हुये ऐसा हो ये संभव भी नही था कुछ देर बाद उपाध्याय जी आ ही गए और मुझे इस तरह हिलाया की जैसे शहर मे आग लगी हो "उठो मे पूरी रात गायब रहो और दिन भर सोना ई सब का है मे इहाँ रात रात भर घूमय आए हो की पढ़य" मै उपाध्याय की चेरौरी करते हुये कहा भइया अभी सोने दो कुछ देर मे सब बताता हूँ, तुम का बताओगे हम सुबह तुम्हें मटियारारोड से आते देखा है । अब ई बताओ की इत्ते सबेरे कहाँ से आए गुरु वो भी उसके साथ,,,, हाँ भाई कुछ काम था सब समझ रहे है गुरु आज कल बहुत जरूरी जरूरी काम कर रहे हो उ भी पूरी पूरी रात इतना कह कर उपाध्याय कुटिलता के साथ मुस्कुराया , उपाध्याय की बाते मुझे कुछ अच्छी नही लगी तो मै थोड़ा सख्त होते हुये कहा उपाध्याय जी वो मेरी बहुत अच्छी दोस्त है और मै उसका सम्मान करता हूँ कोई भी बात या राय बनाने से पहले ये बात ध्यान मे रखिएगा, उपाध्याय अरे भाई जी आप भी हमे पता नही है क्या पर उयाध्याय की बाते और उसकी मुस्कुराहट मुझे परेशान कर रही थी उस कोचिंग के बाद शिवकुटी चला गया आशीष के कमरे मे मन मे काफी कुछ था जो परेशान कर रहा था जिसे मै ठीक से समझ नही सकता था कई बार जब मै परेशान होता था तो लगभग अंधेरा होने के बाद गंगा के किनारे चला जाता था उस दिन भी यही सोच रहा था की आशीष को साथ लेकर गंगा किनारे बैठूँगा
आशीष के कमरे मे ताला बंद था मेरी निराशा बढ़ती जा रही थी जैसे रक्तसंचार कम हो रहा हो एक तरफ लग रहा हो जैसे मै किसी बड़े गुनाह से छिपने के लिए भाग रहा हूँ, आशीष जब भी कहीं बाहर जाता हो चाभी बाहर लगे मनीप्लांट के गमले के नीचे रखी होती थी, पर जब इलाहाबाद से बाहर होता तो चाभी साथ ही ले जाता उस दिन मुझे वहाँ चाभी मिल गयी, शाम लगभग सात बजे तक कमरे मे ही आशीष का इंतज़ार करता रहा फिर एक नोट लिख कर चाभी मनीप्लांट को देकर चाय पीने के लिए निकल गया, रात मे बहुत देर तक गंगा किनारे बैठा रहा हल्की बारिश होने लगी थी वापस आने पर भी कमरे मे ताला लगा हुआ था, मनीप्लांट से चाभी लेकर जब कमरे मे गया तो नोट ठीक वैसा ही रखा था जैसा मै छोड़ कर गया था, कुछ समझ नही आ रहा था की अब कहाँ जाऊँ रात काफी हो चुकी थी कुछ देर किताबें पलटता रहा फिर वही सो गया उस रात मै ठीक से सो नही पाया तीन बार नींद मे उठा पहली बार जब किसी ने मेज मे रखा हुआ चाय का गिलास गिरा दिया शायद चूहा या और कुछ वैसा ही रहा होगा उसके बाद बहुत देर तक लाइट जला कर ये जानने की कोशिश करता रहा की गिलास जो मेज के बीच मे रखा था नीचे कैसे गिरा, एक बार फिर सोने की कोशिश कर रहा था तो चमक के साथ बादल इतनी ज़ोर से गरजे जैसे बिजली आँगन मे ही गिरी हो बारिश की तेज आवाज कमरे से साफ सुनी जा सकती थी तीसरी बार वही सुबह के चार बजे रहे होंगे नींद खुली मै पसीने से भीगा हुआ था ऐसा लग रहा था जैसे कोई सीने मे बैठ कर गला दबा रहा हो इस बार डर अपने चरम पर पहुँच गया था, फिर सो नही सका एक उमस भरी सुबह का इंतज़ार था कुछ देर बिस्तर मे ही बैठा रहा सर फट रहा था कमरे का अंधेरा डरा देने वाला लग रहा था बारिस बंद थी कमरे के बाहर नल से पानी टपकने की आवाज साफ सुनी जा सकती थी, एक नोट लिख कर मेज मे छोड़ कर चाभी मनीप्लांट को वापस दे कर निकाल आया , सुबह की चाय के लिए प्रयाग स्टेशन मे रुक गया तब तक कहीं कोई और दुकान खुली भी नही थी, मै अपने को एक दम निरुद्देश पा रहा था कुछ समझ नही आता क्या करना या क्या करना चाहता हूँ, कुछ था मन मे जिसे नकारने के लिए बस भाग रहा था, अपने आप से झूँठ बोलना आसान नही है पहली बार ऐसा लग रहा था,

अब मै चाय के लिए भी बाहर नही जाता सुबह जार्जटाउन चितरंजन के घर जाता वही पढ़ता फिर वही से कोचिंग और शाम को रूम मे ही चाय बना लेता ये सिलसिला तीन चार दिन चला उपाध्याय ने बताया की इंदुमती आई थी पूछने तो उसने बता दिया है की कुछ नोट्स बनाने है तो वहीं चितरंजन के पास जा रहे है आज कल,

अगस्त की आख़री तारीख़ गुरुवार को थी नीचे वाली आँटी जी ब्रहस्पतिदेव की पूजा कर रही थी जब इंदुमती पहली बार मेरे रूम मे आयी थी मेज खुली हुयी किताब चाय का गिलास मेज मे लुढ़क गया था नीचे बची चाय पेपर मे फैल कर सूख चुकी थी जिसमे चींटियाँ चल रही थी तौलिया दरवाजे मे स्वागत के लिए पड़ा था जूते स्टूल मे रखे हुये थे नीचे रख कर वो बैठी थी जिस तरह वो रूम मे मेरे सामने थी, मै कुछ बोल नही पा रहा था , ऐसा लगा जैसे इंटरव्यू दसवें नम्बर मे हो और नाम सबसे पहले बुला लिया हो, बिना तैयारी के एक्जाम तो देना ही था , मै लाचारी से अपनी हर चीज को देख रहा था जो बेतरीबी से फैली हुयी है, इन सब के बीच एक चीज एक परफेक्ट नज़र आ रही थी वो थी मेरी साहित्यिक किताबों की आलमारी, काफी देर दो जोड़ा खामोश आंखे कमरे मे कुछ तलाश करती रही बस वो एक दूसरे मिल नही रही थी, चाय पियोगी बोलते हुये खामोशी तोड़ते हुये बोला, इंदुमती बिना कुछ बोले ही सहमती जताई, नोट्स तैयार हो गये इंदुमती बोली, हाँ यार हो ही गये , बता कर भी तो जा सकते हो ना तुम्हें नही पता इधर कितना परेशान थी मै और तुम हर बार की तरह भाग गये इस बार भी इंदुमती और कुछ बोलती मैने पुंछा चाय मे कॉफी डाल दूँ मै ऐसे ही पीता हूँ, चाय खत्म हो गयी बहुत सी बाते जो मेरे जाने के बाद हुयी इंदुमती बताती रही और शायद कुछ बातें और भी थी जो वो बताना चाहती थी पर बताया नही, अब यह तय था की हम दोनों एक ही लॉज मे रहेंगे या कोई एसा मकान तलाश करना था जहाँ हम दोनों को रूम मिल सके, जितना उसने बताया था , उस हिसाब से इन सब की वजह मित्तल साब ही थे


मुझे घर आना था दो सितंबर को मेरा बर्थड़े था, इंदुमती चाहती थी की दो की शाम हम कहीं चले, बाद मे वो इस बात को लेकर मान गयी की मै दो को दोपहर की ट्रेन से मानिकपुर निकलूँगा और वापस आ कर कहीं घुमाने ले चलूँगा, इंदुमती की बातों मे अब कुछ अधिकारबोध लगता था जैसे वो कुछ बोले और उस बात को मानना मेरा नैतिक कर्तव्य हो, कमरे की तलाश के लिए मानिकपुर से वापस आने के बाद के लिए कहा, तब तक इंदुमती ने पराठे भी बना लिए थे, अब मुझे भी लग रहा था की हम पास होंगे तो खाने वाली समस्या भी कुछ कम ही रहेगी , खाने के बाद इंदुमती मेरी चीजों को ठीक करने की कोशिस करती रही कोचिंग का वक़्त हो गया था हम दोनों अपनी अपनी कोचिंग चले गये,
दो सितंबर 2000 की सुबह सात बजे ही इंदुमती मेरे रूम एक प्रिंटेड झोले के साथ आ गयी थी जिसमे काँच के टुकड़े जैसे सितारे लगे थे, तब तक मै भगवान को धुवे के साथ छोड़ कर बैठा पेपर पलट रहा था , अचानक से उसने मुझे हॅप्पी बर्थड़े बोलते हुये अपनी तरफ खींचा उसके नरम चेहरे को मै अपने गले के पास महशुस कर रहा था, उसने गहरे नीले रंग की खड़ी कालर वाली कमीज़ के साथ आसमानी रंग की जींस पहन रखी थी, हाँथ में कुछ पत्थरो की माला जैसी ब्रेसलेट डाली थी, ये ब्रेसलेट होटल रॉयल के बाहर लगी दुकान से मैंने ही ख़रीदा था, इंदुमती ने इसे ले तो लिया था, पर मै जनता था की वो उसे बहुत पसंद नही था, फिर भी वो उसके हाँथ में काफी अच्छा लग रहा था, उसके ब्रेसलेट को मै कंधे के पास महसूस कर सकता था, उससे "थैंक यू " बोलना चाहता पर होंठ बस कापते रहे शब्द गले से बाहर आये ही नही, और वो धीरे से मेरे कान मे कुछ फुसफुसा गयी ये सब इतना अचानक था की वो कान मे क्या बोली मै समझ नही पाया या जो समझा था उसे लेकर बात करने की हिम्मत नही हुयी, इंदुमती चाय बनाने लगी चाय रख कर वो झोले से समोसे और अमृत स्वीट हाउस की मिठाई वाला डिब्बा निकालते हुये बोली पनीर की सब्जी भी बना लाई हूँ रोटियाँ यही बना लेंगे, ट्रेन कितने बजे की है, दो बजे महानगरी से जाना है, मै बोला तो ठीक है ना मै भी चलूँगी साथ मे छोड़ने , मैंने कहा और कोचिंग कौन जाएगा , आज नही जाना यार आज तक एक भी दिन का गैप नही किया तो एक दिन चल ही जायगा,
हम स्टेशन मे थे ट्रेन आ चुकी थी इंजन आगे पीछे बदला जा रहा था, ये वही प्लेटफॉर्म था जिसे छोड़ कर हर बार जाता था पर इस बार कुछ अलग था बस इलाहाबाद से आने का मन नही हो रहा था, ट्रेन धीरे धीरे स्टेशन छोड़ रही थी बहुत दिनों बाद कोई इस तरह या पहली बार स्टेशन छोडने आया था.................
क्रमशः.............