हैप्पी बर्थडे
इंदुमती का आठवां पन्ना
इंदुमती को घर के पास छोड़ा मित्तल साब अखबार वाले के पास खड़े कुछ बातें कर रहे थे मेरी मित्तल साब से कोई मुलाक़ात नही थी फिर भी मैंने औपचारिकता बस मित्तल साब से नमस्कार कर लिया और उनका जवाब भी ऐसा ही था जैसे वो अभिवादन का जवाब देना नही चाहते हों पर फिर भी ये दूसरी बार मै उन्हे नमस्कार ठोक रहा था इंदुमती सीधे गेट के अंदर चली गयी , इस बार पलटकर कुछ कहा नही और मै भी अपने लाज चला गया, अब दीपक भाई की थ्रीजी वापस करने जाना था, पहले लगा की नहा कर सो जाता हूँ, फिर मन मे आया की अभी वक़्त मे दे आता हूँ नही फिर दुबारा नही मिलेगी, तो बाघंबरी जाना ही ठीक था, सोमवार का दिन था, गुनगुन, सगुन को डॉ साब स्कूल छोडने के लिए बस का इंतज़ार कर रहे थे, सप्ताह का पहला दिन इतवार होता है पर जब कि हमे पाँचवी तक ये बात समझ नही आई , संडे मंडे पहली दूसरी मे ही सीख गए थे, हम हमेशा सोमवार को ही सप्ताह का पहला दिन मानते रहे इतवार की छुट्टी के बाद सोमवार को स्कूल जाना बिलकुल पसंद नही था, हाँ स्कूल पहुँचने के बाद ये नापसंदी हमेशा भूल जाती, स्कूली दोस्तो मे मस्त हो जाते, लंचबॉक्स लंचटाइम की मस्ती सब कुछ ऐसा था की याद आ जाये तो तमाम बड़ी बड़ी बातें बेकार लगती है, वक़्त है ही ऐसा जो हमेशा गुज़र जाने के बाद वापस नही आता।
बाघंबरी से दीपक भाई को हीरोपुक वापस करके अपनी साइकिल से वापस अल्लापुर दीपक भाई रोक रहे थे बोले भी की चलो कचौड़ी खाते है, दीपक भाई के पास जाना हो और बिना कुछ खाये पिये वापस आना ये भी एक उपलब्धि ही थी कुछ लोग इस बात पर गंभीरता से ध्यान रखते है की उनके पास आने वाला बिना कुछ खाये ना जाये , ये वही लोग है जो हम जैसे काहिलों को गालियां देते रहते है, इनकी चर्चा भी अक्सर इसी के आस पास घूमती रहती थी उसके यहाँ गए तो उसने ये खिलाया उसने वो नही खिलाया इलाहाबाद मे तमाम ऐसे लड़के थे खाने पीने को लेकर बहुत गम्भीर रहते थे कल खाने मे क्या बनाना है ये भी उनकी चिंता का विषय होता था, और मै खाना बनाने से बचने के लिए ऐसी मित्रता से बचने की कोशिश कभी नही करता था,
वापस लाज पहुँच कर सो गया पर उपाध्याय जैसे पड़ोसी के होते हुये ऐसा हो ये संभव भी नही था कुछ देर बाद उपाध्याय जी आ ही गए और मुझे इस तरह हिलाया की जैसे शहर मे आग लगी हो "उठो मे पूरी रात गायब रहो और दिन भर सोना ई सब का है मे इहाँ रात रात भर घूमय आए हो की पढ़य" मै उपाध्याय की चेरौरी करते हुये कहा भइया अभी सोने दो कुछ देर मे सब बताता हूँ, तुम का बताओगे हम सुबह तुम्हें मटियारारोड से आते देखा है । अब ई बताओ की इत्ते सबेरे कहाँ से आए गुरु वो भी उसके साथ,,,, हाँ भाई कुछ काम था सब समझ रहे है गुरु आज कल बहुत जरूरी जरूरी काम कर रहे हो उ भी पूरी पूरी रात इतना कह कर उपाध्याय कुटिलता के साथ मुस्कुराया , उपाध्याय की बाते मुझे कुछ अच्छी नही लगी तो मै थोड़ा सख्त होते हुये कहा उपाध्याय जी वो मेरी बहुत अच्छी दोस्त है और मै उसका सम्मान करता हूँ कोई भी बात या राय बनाने से पहले ये बात ध्यान मे रखिएगा, उपाध्याय अरे भाई जी आप भी हमे पता नही है क्या पर उयाध्याय की बाते और उसकी मुस्कुराहट मुझे परेशान कर रही थी उस कोचिंग के बाद शिवकुटी चला गया आशीष के कमरे मे मन मे काफी कुछ था जो परेशान कर रहा था जिसे मै ठीक से समझ नही सकता था कई बार जब मै परेशान होता था तो लगभग अंधेरा होने के बाद गंगा के किनारे चला जाता था उस दिन भी यही सोच रहा था की आशीष को साथ लेकर गंगा किनारे बैठूँगा
आशीष के कमरे मे ताला बंद था मेरी निराशा बढ़ती जा रही थी जैसे रक्तसंचार कम हो रहा हो एक तरफ लग रहा हो जैसे मै किसी बड़े गुनाह से छिपने के लिए भाग रहा हूँ, आशीष जब भी कहीं बाहर जाता हो चाभी बाहर लगे मनीप्लांट के गमले के नीचे रखी होती थी, पर जब इलाहाबाद से बाहर होता तो चाभी साथ ही ले जाता उस दिन मुझे वहाँ चाभी मिल गयी, शाम लगभग सात बजे तक कमरे मे ही आशीष का इंतज़ार करता रहा फिर एक नोट लिख कर चाभी मनीप्लांट को देकर चाय पीने के लिए निकल गया, रात मे बहुत देर तक गंगा किनारे बैठा रहा हल्की बारिश होने लगी थी वापस आने पर भी कमरे मे ताला लगा हुआ था, मनीप्लांट से चाभी लेकर जब कमरे मे गया तो नोट ठीक वैसा ही रखा था जैसा मै छोड़ कर गया था, कुछ समझ नही आ रहा था की अब कहाँ जाऊँ रात काफी हो चुकी थी कुछ देर किताबें पलटता रहा फिर वही सो गया उस रात मै ठीक से सो नही पाया तीन बार नींद मे उठा पहली बार जब किसी ने मेज मे रखा हुआ चाय का गिलास गिरा दिया शायद चूहा या और कुछ वैसा ही रहा होगा उसके बाद बहुत देर तक लाइट जला कर ये जानने की कोशिश करता रहा की गिलास जो मेज के बीच मे रखा था नीचे कैसे गिरा, एक बार फिर सोने की कोशिश कर रहा था तो चमक के साथ बादल इतनी ज़ोर से गरजे जैसे बिजली आँगन मे ही गिरी हो बारिश की तेज आवाज कमरे से साफ सुनी जा सकती थी तीसरी बार वही सुबह के चार बजे रहे होंगे नींद खुली मै पसीने से भीगा हुआ था ऐसा लग रहा था जैसे कोई सीने मे बैठ कर गला दबा रहा हो इस बार डर अपने चरम पर पहुँच गया था, फिर सो नही सका एक उमस भरी सुबह का इंतज़ार था कुछ देर बिस्तर मे ही बैठा रहा सर फट रहा था कमरे का अंधेरा डरा देने वाला लग रहा था बारिस बंद थी कमरे के बाहर नल से पानी टपकने की आवाज साफ सुनी जा सकती थी, एक नोट लिख कर मेज मे छोड़ कर चाभी मनीप्लांट को वापस दे कर निकाल आया , सुबह की चाय के लिए प्रयाग स्टेशन मे रुक गया तब तक कहीं कोई और दुकान खुली भी नही थी, मै अपने को एक दम निरुद्देश पा रहा था कुछ समझ नही आता क्या करना या क्या करना चाहता हूँ, कुछ था मन मे जिसे नकारने के लिए बस भाग रहा था, अपने आप से झूँठ बोलना आसान नही है पहली बार ऐसा लग रहा था,
अब मै चाय के लिए भी बाहर नही जाता सुबह जार्जटाउन चितरंजन के घर जाता वही पढ़ता फिर वही से कोचिंग और शाम को रूम मे ही चाय बना लेता ये सिलसिला तीन चार दिन चला उपाध्याय ने बताया की इंदुमती आई थी पूछने तो उसने बता दिया है की कुछ नोट्स बनाने है तो वहीं चितरंजन के पास जा रहे है आज कल,
अगस्त की आख़री तारीख़ गुरुवार को थी नीचे वाली आँटी जी ब्रहस्पतिदेव की पूजा कर रही थी जब इंदुमती पहली बार मेरे रूम मे आयी थी मेज खुली हुयी किताब चाय का गिलास मेज मे लुढ़क गया था नीचे बची चाय पेपर मे फैल कर सूख चुकी थी जिसमे चींटियाँ चल रही थी तौलिया दरवाजे मे स्वागत के लिए पड़ा था जूते स्टूल मे रखे हुये थे नीचे रख कर वो बैठी थी जिस तरह वो रूम मे मेरे सामने थी, मै कुछ बोल नही पा रहा था , ऐसा लगा जैसे इंटरव्यू दसवें नम्बर मे हो और नाम सबसे पहले बुला लिया हो, बिना तैयारी के एक्जाम तो देना ही था , मै लाचारी से अपनी हर चीज को देख रहा था जो बेतरीबी से फैली हुयी है, इन सब के बीच एक चीज एक परफेक्ट नज़र आ रही थी वो थी मेरी साहित्यिक किताबों की आलमारी, काफी देर दो जोड़ा खामोश आंखे कमरे मे कुछ तलाश करती रही बस वो एक दूसरे मिल नही रही थी, चाय पियोगी बोलते हुये खामोशी तोड़ते हुये बोला, इंदुमती बिना कुछ बोले ही सहमती जताई, नोट्स तैयार हो गये इंदुमती बोली, हाँ यार हो ही गये , बता कर भी तो जा सकते हो ना तुम्हें नही पता इधर कितना परेशान थी मै और तुम हर बार की तरह भाग गये इस बार भी इंदुमती और कुछ बोलती मैने पुंछा चाय मे कॉफी डाल दूँ मै ऐसे ही पीता हूँ, चाय खत्म हो गयी बहुत सी बाते जो मेरे जाने के बाद हुयी इंदुमती बताती रही और शायद कुछ बातें और भी थी जो वो बताना चाहती थी पर बताया नही, अब यह तय था की हम दोनों एक ही लॉज मे रहेंगे या कोई एसा मकान तलाश करना था जहाँ हम दोनों को रूम मिल सके, जितना उसने बताया था , उस हिसाब से इन सब की वजह मित्तल साब ही थे

दो सितंबर 2000 की सुबह सात बजे ही इंदुमती मेरे रूम एक प्रिंटेड झोले के साथ आ गयी थी जिसमे काँच के टुकड़े जैसे सितारे लगे थे, तब तक मै भगवान को धुवे के साथ छोड़ कर बैठा पेपर पलट रहा था , अचानक से उसने मुझे हॅप्पी बर्थड़े बोलते हुये अपनी तरफ खींचा उसके नरम चेहरे को मै अपने गले के पास महशुस कर रहा था, उसने गहरे नीले रंग की खड़ी कालर वाली कमीज़ के साथ आसमानी रंग की जींस पहन रखी थी, हाँथ में कुछ पत्थरो की माला जैसी ब्रेसलेट डाली थी, ये ब्रेसलेट होटल रॉयल के बाहर लगी दुकान से मैंने ही ख़रीदा था, इंदुमती ने इसे ले तो लिया था, पर मै जनता था की वो उसे बहुत पसंद नही था, फिर भी वो उसके हाँथ में काफी अच्छा लग रहा था, उसके ब्रेसलेट को मै कंधे के पास महसूस कर सकता था, उससे "थैंक यू " बोलना चाहता पर होंठ बस कापते रहे शब्द गले से बाहर आये ही नही, और वो धीरे से मेरे कान मे कुछ फुसफुसा गयी ये सब इतना अचानक था की वो कान मे क्या बोली मै समझ नही पाया या जो समझा था उसे लेकर बात करने की हिम्मत नही हुयी, इंदुमती चाय बनाने लगी चाय रख कर वो झोले से समोसे और अमृत स्वीट हाउस की मिठाई वाला डिब्बा निकालते हुये बोली पनीर की सब्जी भी बना लाई हूँ रोटियाँ यही बना लेंगे, ट्रेन कितने बजे की है, दो बजे महानगरी से जाना है, मै बोला तो ठीक है ना मै भी चलूँगी साथ मे छोड़ने , मैंने कहा और कोचिंग कौन जाएगा , आज नही जाना यार आज तक एक भी दिन का गैप नही किया तो एक दिन चल ही जायगा,
हम स्टेशन मे थे ट्रेन आ चुकी थी इंजन आगे पीछे बदला जा रहा था, ये वही प्लेटफॉर्म था जिसे छोड़ कर हर बार जाता था पर इस बार कुछ अलग था बस इलाहाबाद से आने का मन नही हो रहा था, ट्रेन धीरे धीरे स्टेशन छोड़ रही थी बहुत दिनों बाद कोई इस तरह या पहली बार स्टेशन छोडने आया था.................
क्रमशः.............
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें