शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

                                                                      रात रजनी की विदाई 

                                                   इंदुमती  का सातवां पन्ना 


इंदुमती को छोड़ कर आगे को बढ्ने ही वाला था की इंदुमती बोली " कस मे कैसी गुड नाइट" उसके उन शब्दों मे जितनी ठंढक थी उससे कहीं ज्यादा ठंढा उसका चेहरा था एक दम बर्फ सा जमा हुआ बिना किसी भाव के जैसे भावनाओ की आंच मे पिघलना चाहता हो और उस बर्फ के ठंडे टुकड़े को कोई उत्तर के किसी ठंडे मैदान मे कोई छोड़कर जा रहा हो, पर मेरा मन कह रहा था की मै इस टुकड़े को उठा लूँ और मैंने वही किया मै चाह कर भी आगे नही जा सकता था, दिन भर की उमस के बाद जैसे संगम से ठंडे हवाओं के झोंके अल्लपुर को ठंडक दे रहे थे, मै वापस इंदुमती के करीब आ कर खड़ा हो गया पर कुछ बोला नही शायद बोलने के लिए कुछ था नही और अब मै उसे जाने के लिए कह नही सकता था, हवा के झोंके हर बार आ कर हम दोनों से कुछ कहते पर हम दोनों मे से कोई उस चुप्पी को तोड़ना नही चाहता था, मै तो उस खामोशी को हमेशा के लिए अपने पास समेट कर अपने पास रखना चाहता था, कुछ कहने के लिए इंदुमती की तरफ देखता और मुह खुलता भी तो शब्द गायब ही हो जाते इंदुमती अपने हांथ की सबसे छोटी उंगली पर पहनी हुई मोती की अंगूठी को घुमा रही थी, जैसे कोई अपराध बोध हो उसके मन मे मुझे रोकने को लेकर, या शायद कुछ कहना चाहती थी, मैंने फिर एक बार कुछ कहने की कोशिश की और जैसे ही मै बोला इंदुमती ठीक उसी के साथ ही उसने भी कुछ कहने की शुरआत की अमित,,,, मै बोला हुम्म बोलिए वो बोली तुम क्या कह रहे थे मैंने कहा मेरी छोड़ो राजकुमारी तुम बोलो, मै ये कह रही थी कि कहीं चाय नही मिलेगी क्या अब अगर एक एक चाय हो जाय तो फिर वापस घर। पर अभी चाय के लिए कहाँ जाना पड़ेगा इंदुमती बोली , प्रयाग सिविल लाइंस जंक्शन जहां बोलो वही चलते है , इंदुमती ने जंक्शन के लिए कहा तो मै बोला चलो तुम चलाओगी , तो वो बोली नही नही तुम ही चलाओ सिविल लाइंस से निरंजन के पास से निकल चलेंगे,

अब अपनी हीरोपुक सिविल लाइंस की तरफ चल दी सिविल लाइंस के कुछ ढाबे जो सड़क के किनारे बने हुये थे वहाँ ढाबे के छोटू बर्तन साफ कर रहे थे, उनके श्रम के संगीत को साफ सुना जा सकता था, ऐसे ही सैकड़ों छोटुओं का श्रम ही तो था जो सिविल लाइंस की शाम मे जान डालता है , मार्क्स भी कुछ श्रम या श्रम शक्ति जैसी ही बात किया करते थे हाँ उनकी बातों मे एक चीज और थी श्रम मूल्य शायद वो यहाँ नही था श्रम तो था पर श्रम मूल्य नही ये इलाहाबाद ही नही छोटुओं के श्रम का मूल्य कहीं नही होता वैसे मार्क्स गंभीर विषय है हम जैसों के बस की बात नही,इन छोटे तारों की चमक ज्यादा थी या आसमान मे टिमटिमाते तारों की ये सवाल मन को परेशान कर रहा था तो जब आसमान की तरफ देखा तो बस इतना याद आया की " तुम ही रात को दिन मे बदलते हो और दिन को रात मे, और तुम्ही मौत से ज़िंदगी को लाते हो और ज़िंदगी को मौत से और बिना सामर्थ्य वालों पर खुश हो जाने पर तुम्ही खुद सहारा देते हो" हे ईश्वर रहम कर इन बच्चों पर क्या यही तेरा रूप है । हम छोटुओं को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ गए और निरंजन सिनेमा होते हुये जानसनगंज से जंक्शन पहुँच गए।

छोटुवों का श्रम अभी भी मेरे कान मे चिल्ला चिल्ला कर जैसे कह रहा था की हम अपने श्रम के मूल्य मे ही जीवन बिता रहे है तब तक मेरे जीवन मे श्रम मूल्य किताबी बात ही थी इसके अनुभव को मै पूरी तरह समझ नही सका था।हम जंक्शन के पास होटल गुलाब मेंसन के बाहर सड़क की एक चाय की दुकान मे थे, इंदुमती चाय के लिए बोलने लगी दो चाय अलग से बनाना भईया थोड़ा कम शक्कर की, उस दुकान मे भी अधिकतम श्रम बच्चों का ही दिख रहा था एक बुजुर्गान एक नौजवान और पाँच छोटे बच्चे दुकान को अपने श्रम की ऊर्जा दे रहे थे, इंदुमती बोली क्या बात है इतना सन्नाटा काहे खींचे हो, कुछ नही बस यूं ही और पहली बार मार्क्स को लेकर मन मे जिज्ञासा बढ़ रही थी, इंदुमती की चाय आ गयी थी चाय अच्छी थी शायद रात के इस श्रम का परिणाम अच्छा लग रहा हो ऐसा मुझे लगा हो भी सकता है था या नही भी, इंदुमती खुश थी बार बार ऐसे बांहे फैला रही थी जैसे खुले आसमान मे उड़ना चाहती हो वो कह रही थी इस तरह आज़ादी से घूमना कितना अच्छा लगता है ना। सच मे शुक्रिया दोस्त इस चाय के लिये, मज़ा आ गया यार घड़ी देखो टाइम कितना हो रहा है , ढाई बज गया राजकुमारी अब आगे का, वो बोली अभी कुछ देर यहीं घूमते है ना फिर बाद मे चलेंगे आज घर जाने का मन नही है ।

मै इंदुमती को स्टेशन के अंदर ले गया दो प्लेटफॉर्म टिकट ली और बोला चलो राजकुमारी कुछ नया देखो तमाम चीजो को आज दूसरे नज़रिये से देख पाओगी क्यूकी ना आज कहीं जाना है ना किसी का इंतजार है, स्टेशन का व्हीलर बुक शॉप जिसमे वो लोग हमेशा भीड़ लगाते है जिन्हें किताबें लेनी ही नही है लेने वाले को पता होता है क्या लेना है वो लेकर आगे निकलता है पर जिसे वक़्त गुजरना है, बेवजह बकैती करता रहता है, कितने लोग है जो रोटी के लिये महाराष्ट्र और गुजरात दिल्ली जाने वाली गाड़ियों की जनरल बोगियों मे भूसे सा लदा हुआ जाते है । ये श्रम है जो अपना घर छोड़ कहीं और भाग रहा है और ये वही श्रम है जिससे गुजरात महाराष्ट्र दिल्ली की चमक है । पर वहाँ किसी को पता नही होगा की जो टाई बांध के वो अपने कंपनी की कामयाबी की कहानी सुनाते है उसे बनाने बाली ऊर्जा रेलवे के टायलेट मे बंद होकर पूर्बी उत्तरप्रदेश से आई है । वही कामयाबी की हकदार है। वहीं एक बूढ़े चचा प्लेटफॉर्म पर बैठे थे और ट्रेन आने पर उसके पास तक जाने के लिये लाचार थे उन्हे मैंने इंदुमती के साथ सहारा दिया उनका टिकट एसी प्रथमश्रेणी का था बेटा स्टेशन छोड़ कर चला गया था चचा बता रहे थे की एसी की टिकट थी तो बेटा बोला की आप चले जाना उसमे कहाँ भीड़ होगी, पर मै ये नही कह पाया की ट्रेन मे कैस बैठूँगा, अरे चचा छोड़ो भी मै आपको ट्रेन मे बैठाने ही तो आया था मै बोला, चचा को उनकी बर्थ मे बैठा कर हम ट्रेन से नीचे उतर रहे थे तो चचा बोले बेटा अपना नाम तो बताते जाओ और मेरा नम्बर ले लो कभी कोई काम हो तो बता देना, चचा का बेटा पुलिस मे ओहदेदार अफसर था, मैंने कहा अब रहने भी दीजिये चचा फिर नम्बर लिख ही लिया लगा की चचा को भी लगेगा की नम्बर लिखा कर उन्होने अपना ऋण चुकता कर दिया जो उस वक़्त उनकी आंखो मे साफ देखा जा सकता था । हम ट्रेन चलने तक वही प्लेटफॉर्म पर ही रहे और और फिर उन तमाम आते जाते लोगों की भागमभाग से बाहर निकाल आए,

अब हमे वापस अल्लापुर जाना था, इस बार इंदुमती हीरोपुक चला रही थी, मै सोच रहा था की कितना पैसा कितना समर्थवान आज उ चचा के पास पैसे भी थे प्रथमश्रेणी का टिकट था पर प्लेटफॉर्म से उठ कर ट्रेन मे चढ़ने का समर्थ नही था जो कुली उनके पास था वो भी ज्यादा पैसे की लालच मे उन्हे छोड़ गया था, ये पैसा फिर और ज्यादा पैसा क्या है इसका मतलब उस वक़्त एक पुरानी घटना याद आ रही थी "कहीं बाढ आई थी एक सेठ जो सोने के बहुत से गहने पहने था और ब्रेड बैंचने वाला और कुछ बच्चे बाढ मे फसे थे सभी को ज़ोरों की भूंख लगी थी सेठ ब्रेड वाले को अपने सोने के गहने दे कर ब्रेड लेना चाहता था तो ब्रेड वाले ने ये कह कर मना कर दिया की जब तक बच्चे नही खा लेते तब तक मै आपको ये ब्रेड नही दे सकता'' कई बार आपका पैसा भी आपके काम नही आता, मन काफी भारी हो रहा था, इंदुमती जब आलोपी मन्दिर के आगे जाने लगी तो मैंने कहा की कहाँ जा रहे है हम अभी भी घर नही चलना क्या, वो बोली बस बँधवा तक चलते है फिर थोड़ी देर रुक कर आ जाएंगे ।

बँधवा मे पहुँच कर हनुमान मन्दिर के थोड़ा पीछे ही किसी पंडा जी की बेंच पड़ी थी उसी मे बैठ गए गंगा, यमुना दोनों बाढ़ मे थी संगम का पानी एक ठहरी हुई झील की तरह लग रहा था, इंदुमती कह रही थी की जंक्शन से अच्छा यही आ गए होते कितनी शांति है यहाँ, अंधेरा धीर धीर कम हो रहा था मॉर्निंगवॉक वाले भी अपनी छड़ी के साथ दिखने लगे थे पूरब का आसमान गुलाबी हो रहा था यही उषा की लाली होगी, रात के सप्तर्षि के चक्र को तो अक्सर देखता था पर उषा की लाली एक लंबे समय के बाद मिल रही थी, रात रजनी की विदाई के साथ उषा की लाली के स्वागत मे इलाहब्बाद गंगा यमुना के साथ खड़ा था, उषा की लाली मे भी अपना एक अलग नशा है या यूं भी हो सकता है नशेड़ी हर जगह अपना नशा ढूंढ ही लेता है।
उषा की लाली तपन मे लाल हो इससे पहले हम घर जाते पूरी रात घूमने के बाद भी लग रहा था की अभी अंधेरा कुछ देर और रहता तो बेहतर था, इंदुमती कह रही थी कितना अजीब है ना जहां आज पानी भरा है वहाँ कुछ दिनों बाद एक नया शहर बनेगा जो सबसे अलग होता है। मैंने कहा राजकुमारी अब चलें नही कहीं ऐसा ना किसी उस शहर के बसते बसते हम उजड़ जाये, अब घर चले इंदुमती बिना कुछ बोले हीरोपुक की चाभी पकड़ा दी और हम घर के लिए चल दिये.........
क्रमशः..................

रविवार, 14 सितंबर 2014

                                                                       नॉन वेज ढाबा

                                                                 इंदुमती का छठा पन्ना 


हम सिनेमा मे जब पहुंचे तो हाल मे अंधेरा हो गया था, टार्च वाले भईया ने हमे हमारी सीट तक पहुंचाया राजकरन मे उसी समय कुछ परिवर्तन भी हुये थे । कुर्सियाँ पहले से कुछ नरम हो गयी थी आगे पीछे खिसक भी रही थी इलाहाबाद मे ये सब उपलब्धियों की तरह ही देखा जा सकता था, अब अपने को तो उ सिनेमा मे कोई इन्टरेस्ट था नही तो बस कुर्सी आगे पीछे खिसकाय रहे थे, तभी इंदुमती बोली ये कर रहे हो, तो फिर चुपचाप सीधा बैठा रहा पर मज़ा नही आ रहा था, मेरे साथ कई बार ऐसा होता था की जो फिल्म देखने का मन ना हो और कोई दोस्त ले जाय तो तो अक्सर पहले शो मे ही जाते थे और आराम से पैर फैला कर सोते थे सुबह दस से एक बजे की बिजली कटौती तो तब से आज तक चली आ रही है, फिल्म समाप्त होने के बाद सब चलने लगते तो मुझे भी उठाते और गरियाते हुये ले जाते की जब देखना नही था तो कहे पैसे खराब करने आ गए, ये फिल्म भी कुछ वैसी ही थी आगे क्या होगा ये पहले ही पता था। कहानी ऐसी थी की तीन घंटे बांध ही नही पायी, हाँ एक गीत उस समय सामयिक लगा था " उसे हसना भी होगा उसे भी रोना भी होगा हर दिल जो प्यार करेगा" पर ये उस वक़्त की अपनी एक स्थिति थी फिल्म मे एक गीत था " ऐसा पहली बार हुआ है सतरा अठरा सालों मे" तो इसी गीत के बीच मे ही मै इंदुमती से बोला मै भी अठरा का ही हूँ इंदुमती, चुप रहो मै बीस की हूँ चुपचाप फिल्म देखो इंदुमती बोली, मै बार बार बात करने की कोशिश करता और इंदुमती चुप करा देती, अब तो इंटरवेल का इंतज़ार था और वो इंतज़ार भी खत्म हुआ हाल की लाइट जल गयी कोल्ड ड्रिंक्स, समोसे वालों का आतंक चलने लगा था, जब जेब मे उधर के पैसे हों तो ये सब एक आतंक की तरह ही लगता है , इस आतंक से भी जूझते हुये कोकाकोला और चिप्स का बड़ा पैक ले लिया, कुछ फिल्मों के ट्रेलर के बाद फिल्म फिर शुरू हो गयी तब तक मै भी फिल्म मे कुछ ध्यान देने लगा था परिवार के समागम के साथ फिल्म समाप्त हुई जैसे तमाम भारतीय फिल्मों मे होता है, हाल मे रोशनी हो गयी थी लोग कुर्सियों को अकेला छोड़ कर जा रहे थे पर जैसे उनका अपना बहुत कुछ उसी सिनेमा हाल मे छूट गया हो, सबके साथ होता है शायद आपके साथ भी हुआ हो, जब तक की वो हाल की घुटन से बाहर खुले आसमान के नीचे नही आ जाता। इन्दुमती ने रुकने को कहा बोली की पहले लोगों को निकलने दो फिर चलते है ,
हम हाल के बाहर आकर सुभाष चौराहे पर खड़े थे अब खाना खाने कहाँ चलना है ,मै यही सोच रहा था तभी इन्दुमती बोली कहाँ चल रहे हो , मै बोला अब राजकुमारी बताये कहाँ चलना है , आज नॉन वेज खाने का मन है कही मस्त चिकन मिल जाए पर अब तुम बोलोगे की इन्दुमती मै चिकन नही खाता, मै कुछ बोला नही शायद कुछ सवाल अपने आप से कर रहा था, फिर बोला चलो कहाँ मिलेगा चिकन पता है वहीं चलते है , इन्दुमती बोली तुम भी कहते हो, मै बोला जब अंडे नही खाता तो चिकन कैसे पर वहां कुछ वेज होगा मै वही खा लूंगा मै खाता नही हूँ पर सामने बैठ कर कोई खाए इसमें एतराज़ भी नहीं है। हम सेन्ट्रल बैंक के सामने एक ढाबे मे सड़क किनारे खाने के लिए पहुँच गए।

मै नॉन वेज ढाबे में चला तो गया था पर मेरे मन में तमाम सवाल अब भी थे, इन्दुमती जो खाना चाह रही थी उसका इन्कार मेरे लिए किसी गुनाह से कम नही था और मै पहले कभी ऐसे किसी के साथ खाने के लिए बैठा नही था सरयूपारी गर्ग गोत्र का ब्राह्मण और मांसाहारी भोजनालय में मेरे बाबा जी को पता चलता तो शायद घर परिवार से बेदखल कर देते, फिर सोचता की ये तो प्रकृति का ही खेल है मनुष्य मांसाहार के लिए भी बना है, हमारे यहाँ पुरानी मस्जिद के पास मुल्ला फैजुल्ला रहते थे वो कहा करते थे की मनुष्य के दांतों में कैनाइन (जो कुत्तों में भी होता है) होता है, जो मांसाहार के लिए ही है , तभी तो हम मांसाहारी है, गाय कभी मांस नही खाती ना तो उसके पास वो दांत है ना हो वो मांस खा पाएगी, तो जिसे प्रकृति ने खाने के लिए बनाया तो अगर वो उसका प्रयोग करे तो क्या बुराई है। इसी सब उधेड़ बुन मे लगा था तभी इन्दुमती बोली की कुछ खाने के लिए बोलूं की कही और चले कुछ परेशानी , नही नही मै शाही पनीर रोटी लूंगा तब भी मन में था की अगर मटर पनीर बोलू तो कही नॉन वेज वाली तरी ना डाल दें, इन्दुमती ने ढाबे वाले को खाने का मीनू बता दिया अब हम खाने का इंतज़ार कर रहे थे, इन्दुमती बोली की कुछ पढ़ते भी हो की बस अमृता प्रीतम की पूजा में लगे रहते हो, सीपीएमटी इत्ता आसान नही है, इन्दुमती मुझसे दो साल सीनियर थी और एक बार सीपीएमटी की परीक्षा दे चुकी थी, मैंने कहा कर लेता हूँ, वैसे मेरा डाक्टर वाक़्टर बनने का कोई इरादा नही है, तो का बनना है कुछ तो करना है की नै इंदुमती बोली मै चुप ही रहा शायद मेरे पास कोई जवाब था नही या जो जवाब था वो मै बोलना नही चाहता था,

ढाबे वाले ने खाना लगा दिया एक ही मेज़ पर एक तरफ पनीर और दूसरी तरफ चिकन मैंने अपनी रोटी मक्खन के साथ लाने के लिए बोल दिया और इंदुमती की सादी तंदूर रोटी और खाने लगे इंदुमती चिकन के एक टुकड़े को उठा कर शायद दाँतो से छील रही थी पर मै बाद मे समझा की वो लेग पीस खा रही है ये बाद मे इंदुमती ने ही बताया था तब तक चिकन को लेकर मेरा ज्ञान शून्य था, इंदुमती ने लेग पीस को छीलते हुये जिसे वो खा रही थी बोली की पंडित जी तो हम अब अच्छे दोस्त है ना अब ये नही की तुम कल फिर गायब हो जाओ, मै बिना कुछ बोले खाने पे ही ध्यान दे रहा था खाना खाने के बाद ढाबे वाला पैसे की पर्ची लेकर आया तो मै पैसे देने लगा तो इंदुमती बोली रुको मै देती हूँ ना अब ये पाप तो ना कराओ की पंडित जी से चिकन के पैसे दिलवाए जाएँ , मै दे रही हूँ प्लीज तुम रहने दो यार फिर कभी तुम्हारी मर्जी से भी ,
खाना खा कर अब घर चलना था रात के लगभग साढ़े दस का वक़्त रहा होगा, मै बोला एक सिगरेट हो जाती तो मस्त रहता ना, हुम्म ले लो मुझे तो लेनी नही है पर सिगरेट कोई अच्छी बात नही है वो भी इस उम्र मे इंदुमती बोली, अच्छा दोहरा खा लें ठीक है जो लेना हो लो और अब चलो यहाँ से मै पान वाले के पास जा कर सिगरेट जला ही ली और और वही फूंकने लगा सिगरेट पीते ही कुछ इधर उधर की बाते होती रही तभी इंदुमती ने बताया था की उसके पापा आर्मी के रिटायर्ड अफसर है और माँ गृहणी । वो अकेली है कोई दूसरा भाई बहन नही है, मै सिगरेट फेंक कर हीरोपुक स्टार्ट करने लगा तो इंदुमती बोली पीछे खिसको जी मै चलाती हूँ।

इंदुमती के साथ वहाँ से चला ,इंदुमती कुछ बोल रही थी और मै कोई जवाब नही दे रहा था, बस यूँ ही अंदर तरह तरह के विचार उमड़ रहे थे। इंदुमती फिर कुछ बोली और सीएमपी के सामने वाले डाट पुल से हीरोपुक को बैरहना की तरफ मोड लिया तब मै इंदुमती के कंधे मे हांथ रख कर चेहरा सामने की तरफ किया मै पूछना चाहता था की इधर कहाँ अल्लापुर नहीं चलना पर कुछ पूंछ नही सका या पूंछा ही नही इंदुमती अपने गले मे शायद मेरी सांसों को महसूस कर रही थी और मै उसकी महक़ से पागल हो रहा था ऐसा लग रहा था कि अब ये कभी ना रुके चलती रहे और ऐसे ही उसी महक़ मे डूबा रहूँ, क्या है जी सो रहे हो क्या इंदुमती बोली, नही नही कहाँ चल रही हो घर नही चलना क्या मैने पूंछा तब इंदुमती बोली अभी तक नही बोले तो कुछ देर और चुप बैठे रहो, वैसे भी आज लॉज मे बता के आई हूँ की रात मे देर से आना है शायद बारह भी बज सकते है, बैरहना चौराहे के आगे इसाइयों के कब्रिस्तान के पास हीरोपुक रोक दी आम तौर पर इतनी रात को यहाँ सन्नाटा और डरावना लगता था, वैसे तब तक इंदुमती को भी नही पता था की वहाँ कब्रिस्तान है वो तो नए यमुना पुल मे काम चल रहा था वही देख रही थी, और जब मैने बताया तो बोली की चलो यहाँ से नए पुल की तरफ यहाँ रात मे भी काम होता है क्या ?

यमुना किनारे बैठ रहे यमुना का काला ठहरा हुआ पानी डरा रहा था, इंदुमती ये यमुना का पानी कितना ठहरा हुआ है और गंगा इतना तेज भागती है कि किसी के लिए वक़्त नही है और सब उसी को " माँ " कहते है जो तेज भाग रही है, इंदुमती बोली तुम भी इतना क्यो सोचते हो कभी ये नही सोचा की यमुना का ये आख़री पड़ाव है उसके बाद तो उसका अस्तित्व ही नही है। शायद इसे पता है इसका काला पानी जो गंगा से अलग है कुछ दूर बाद हमेशा के लिए खो जाएगा , और जो बनारस से इलाहाबाद कभी नही आया होगा वो कैसे जानेगा की यमुना मे कितनी गहराई थी वो तो गंगा ही जानता है ना , ये भी बेदना हो सकती है, हुम्म मै बोला पर मुझे यमुना का गंगा से प्रेम इस वेदना से कहीं अधिक लगता है । तभी तो वो अपने अस्तित्व को समाप्त कर हमेशा के लिए गंगा से मिल जाती है और उसी रंग मे खो जाती है , यही प्रेम होता है किसी मे इस तरह डूब जाओ की पता ही ना चले की तुम्हारा भी कोई अस्तित्व रहा होगा तभी संगम होता होगा, इतना कह कर मै वही लेट गया और अपना सर इंदुमती की गोद मे रख दिया, इन्दुमती मेरे माथे मे हांथ फेर रही थी और एक बार अपने होंठो को मेरे माथे के पास लाकर छोड़ दिया जैसे आँखों मे फूँक मार रही हो उसकी गरम गरम सांसे अंदर तक समा गयी और वो महक जैसे मै कभी भुला ही नही, इंदुमती मेरे बालों मे हांथ फेरते हुये बोली तुम ठीक ही कहते हो एक दूसरे मे डूबना ही संगम है, पर इस संगम मे भी एक हमेशा के लिए खो जाता है तो क्या ये प्रेम सही है , ये कैसा प्रेम है जो साथी का अस्तित्व ही समाप्त कर जाये प्रेम तो वो है जहां दोनों आसमान के तारों की तरह टिमटिमाते रहे, अमित तुम समझने की कोशिश किया करो, यमुना को गंगा मे मिल कर हमेशा के लिए इलाहाबाद मे समाप्त होना है ये उसका भाग्य है , गंगा के लिए प्रेम नही,

रात के बारह बज रहे होंगे शहर भी धीरे धीर खामोश हो रहा था, मै इंदुमती से बोला अब चलना चाहिए इस बार फिर हीरोपुक इंदुमती को ही चलाने को दे दिया और पीछे बैठ कर सोहबतियाबाग होते हुये नेताचौराहे पहुंचे और इंदुमती को उसके घर के सामने छोड़कर चलने लगा तो इंदुमती बोली अब दो को चलते है दो सितंबर को तुम्हारा बर्थड़े है ना, हुम्म तुमहे याद है मै बोला अच्छा चलो गुडनाइट कल मिलेंगे तब बात करते है , कह कर मै चलने लगा , पर सच तो ये था की मै राधा को छोड़ कर जाना ही नही चाहता था....................
क्रमशः......................

शनिवार, 6 सितंबर 2014

                                                               ध्यान से बेटा ई थ्रीजी है 

                                                               इंदुमती का पांचवां पन्ना 

सिविल लाइंस के राजकरन सिनेमा मे "हर दिल जो प्यार करेगा" देखना तय हो चुका था। सिनेमा की टिकट तो खरीदे जा सकते थे तब राजकरन का बालकनी ५१ रुपये का हुआ करता था पर उसके बाद खाना भी खाना था, इंदुमती को ना नही कह पा रहा था महीने का आखिरी समय चल रहा था, अब घर से पढ़ायी के लिये तीन से चार हजार रुपये महीने ही मिलता था,अब उसमे कमरे का किराया और बाकी के खर्च भी तो थे अब इन सबके बाद, ये सिनेमा और उसके बाद खाना खाने का प्लान मुझे परेशानी मे डाल रहा था, इंदुमती को समझाने की कोशिश भी की कि फिल्म देखने के बाद खाना खाने मे वक़्त लगेगा और लॉज वापस आने मे देर हो जाएगी, पर वो किसी तरह मानने को तैयार नही थी, उसका कहना था की अगर मुझे देर से आने मे परेशानी है तो मैटनी शो देखते है, समझ आ गया था की अब जेब खाली होगी अब जरूरत थी किसी मददगार की जो कुछ रुपए दे सके, दूसरी तरफ फिल्म देखने के लिए किसी से पैसे मांगु ये मुझे बुरा लग रहा था, अजीब परिस्थितियों में फंस गया था,
उस दिन रात भर इसी उधेड़बुन मे रहा की अब कैसे करें राधा से भी नही कह पा रहा था की पैसे नही है, यही सब सोच रहा था नींद आ नही रही थी, तो पढ़ने के लिए बैठा ही था, सामने दीपक भाई के बायो के कुछ नोट्स मेज पर रखे थे मै लेकर आया था और जल्दी ही वापस करने के लिए भी बोला था पर काफी वक़्त हो गया था दीपक मेरे ही शहर से था, दीपक के पास हीरोपुक थ्रीजी भी थी। दोनों काम बनते समझ आ रहे थे। पैसे और बाइक दोनों मिल सकती है ।
अगले दिन सबेरे ही जल्दी तैयार होकर निकला, दीपक भाई बागम्बरी गद्दी मे रहते थे, अपनी रेंजर साइकिल से बागम्बरी पहुंचे दीपक भाई अपने घर के बाहर ही खड़े थे शायद चाय पीने के लिए निकले रहे होंगे, देखते ही बोले आओ भइया आओ कैसे आना हुआ, मै शर्मिंदा था उनकी नोट्स वक़्त पे वापस करने नही गया था जो, फिर दीपक भाई बोले आओ तुम्हें चाय पिलाते है, चाय पीते पीते उन्होने दुबारा पुंछा और बताओ कैसे आना हुआ कुछ चाहिए, दीपक भाई भी मेरी आदत से खूब परचित थे मै तभी उनके पास जाता था जब कुछ काम होता था, वैसे भी वो मुझसे बड़े थे,तो उनसे बाते भी कम ही होती थी, मै चुप ही रहा कैसे बात करूँ इसी उधेड़बुन मे लगा था, चाय पीने के बाद वापस दीपक भाई के घर की तरफ चलने लगे, अब पैसे और हीरोपुक मांगनी तो थी ही, पर कैसे बोलू , पहले ही मै उनकी नोट्स महीने भर बाद वापस की है ,किसी तरह हिम्मत जुटाई और हांथ फैला ही दिये, भाई कल कुछ काम है तो आपकी गाड़ी मिल जाएगी क्या वैसे भी कल तो इतवार है, दीपक भाई मुसकुराते हुये बोले तो ये बात है तभी तो मै सोच ही रहा था की तुम आज कैसे दर्शन दे गए यार कुछ काम तो था, अच्छा कितनी देर चाहिए, मै बोला दोपहर वही एक डेढ़ बजे तक, कस मे कौनों सिनेमा जाना है का दीपक भाई ने पूछा, मै जवाब मे चुप ही रहा और अगली मांग रख दी भाई कुछ पैसे भी चाहिए घर जाना है एक दो दिन मे तो कुछ समान भी लेना है, कितना चाहिए दीपक भाई बोले पाँच सौ, ठीक है ले जाना तो पैसे अभी तो नही चाहिए, मैंने कहा नही भाई कल ही दीजिएगा । अब दीपक भाई ने आस्वास्थ कर दिया तो झूमता हुआ वापस लॉज आ कर शाम का इंतजार करने लगा ।
उयाध्याय ने आज कुछ पुरबियों को इक्ट्ठा कर रखा था, बाटी चोखा बना था, वैसे इलाहाबाद मे बाटी चोखा बनता नही था उसका तो प्रोग्राम होता था तो उसी प्रोग्राम मे हम भी शामिल हो लिए, ऐसे प्रोग्रामों की मेरी खोज जारी ही रहती थी साल मे कोई मुश्किल से २५ से ३० दिन का खाना ही मै अपने कमरे मे बनाता था, बाकी का ऐसे ही प्रोग्राम जीने का सहारा बन गए थे, उपाध्याय की बाटी खाते वक़्त तारीफ तो करनी पड़ती थी। "उपाध्याय जी बाटी तो सिर्फ आप ही बनाते है वैसे खाने के मामले मे पुरबियों का जवाब नही" बस इतना बोलते ही दो तीन दिन का खाना मुफ्त हो जाता
खाने के बाद कमरे मे किताबें पलटता रहा घड़ी मे चार बजे थे चाय पीने की इच्छा तीब्र हो रही थी चाय की दुकान अपने लिए मधुशाला जैसी ही थी उस वक़्त तक मधुशाला को लेकर अपनी सोच मे बच्चन साब की मधुशाला से मेल खाती थी चाय की दुकान मे चाय की चुस्की के साथ जगजीत सिंह की गज़ल "वो घड़ी दो घड़ी जहाँ बैठे वो जमीं महके वो शहर महके'' कुछ अलग ही मज़ा दे रही थी,गज़ल सुनते सुनते ही पास के बूकस्टॉल चला गया ये वही जगह थी जहाँ इंदुमती मुझे पहली बार मिली थी, किताबें देखते हुये अमृता प्रीतम का "कोरेकागज़" हांथ मे आ गया, कुछ देर किताब को देखता रहा फिर बंद कर दी एक डर सा आया मन मे की अगर किताब पड़ी तो कल सिनेमा नही जा पाऊँगा, बूकस्टॉल वाले से कोरेकागज़ कागज़ ले लिया और पुंछा की भइया कोई और नया तो नही जो ना पढ़ा हो और कुछ हल्का हो थोड़ा रोमांस के साथ, तो उसने लौलिता पकड़ा दी तब तक लौलिता पढ़ी नही थी पर किताब अच्छी नही है ये जरूर सुना था तभी से कुछ जिज्ञासा भी थी इसे पढ़ने की अब हांथ मे थी तो लेना ही मुनासिब लगा सोचा की देखते है क्या बुरा है इस किताब मे तब तक इंदुमती भी आ गयी थी
इन्दुमति के साथ फिर चाय की दुकान चाय पीते पीते ही कल सिनेमा जाने की योजना पर बात करने लगे और ईवनिंग शो का तय हुआ, और इंदुमती को बताया की दीपक भाई की हीरोपुक है, उसी से चलेंगे, इंदुमती बोली रिक्शे से ठीक रहता क्यु किसी दूसरे से मांगते हो रिक्शे से ही चले चलेंगे, चाय वाले को इंदुमती ने पैसे दिये और घर चल दिये तो कल शाम पाँच बजे मिलते है, कह कर इंदुमती से विदा ली, और अपने कमरे मे पहुँच गया, खाना बनाने का मन नही था तो उपाध्याय जी की तारीफ करने ही पहुँच गए, भाई उपाध्या जी आपका जवाब नही बाटी मस्त बनाते हो अब रात मे क्या खिला रहे हो, उपाध्याय भी ये सब समझने लगा था तो टपक से बोला "चोरय हो का मे" रोज़ बना बनाया पेल के सो जाते हो आज खाना है तो बर्तन धोने पड़ेंगे, मुझे भी खाना बनाने से बेहतर बर्तन धोना ही लगता था सो हाँ कर दिया, वैसे इसके सिवा कोई चारा भी नहीं था सबेरे उपाध्याय के जो भी मित्र आए थे सब खाना खा कर खिसक गए थे बेचारे को सब बर्तन अकेले ही धोने पड़े थे। रात मे खाने के बाद बर्तन धो कर, कुछ देर अपने सबजेक्ट देखता रहा और जब नींद आने लगी तो लोलिता खोल कर बैठ गया कुछ ही देर पड़ा इतनी बुरी भी नही थी जितना सब चिल्ला रहे थे चेतन भगत की किसी भी किताब से तो बेहतर ही था ये अलग बात है की चेतन भगत को मै जनता भी नही था और अब जान के जानना नही चाहता ।
अगली सुबह इतवार की थी ऐसा लग रहा था की इस सुबह का इंतज़ार मुझे बहुत लंबे वक़्त से है । काफी दिनों बाद उस दिन जल्दी ही उठ गया था, जब गाँव मे रहता था तो बाबा जी चिल्लाते थे की कभी उषा की लाली भी देखी है क्या तो उस दिन उषा की लाली देखने के लिए सबेरे ही छत पहुँच गया और बादल बेवफाई कर गए उषा की लाली तो दिखी ही नही रवि (सूरज) के भी दर्शन नही हुये निराशा के साथ काफी देर तक छत मे टहलता रहा अब इंतज़ार था तो सूरज के क्षितिज की तरफ जाने का वापस कमरे मे आकर पढ़ने लगा वही लगभग दो बजे के आस पास दीपक भाई से मिलने बगम्बरी निकाल गया।
बगम्बरी जाते वक़्त रास्ते मे कई बार मन परेशान था की अगर दीपक भाई नही मिले तो क्या करूंगा उस वक़्त मेरे पास सिर्फ २५० रुपए बचे थे अब उसमे किस तरह सिनेमा, खाना आने जाने के रिक्शे के पैसे कैसे होगा। ये सब सोच ही रहा था की दीपक भाई मिल जाये कहीं गए न हो, दीपक भाई घर मे ही मिल गए और बिना ज्यादा वक़्त लिए ही हीरोपुक की चाभी दी और बोले "ध्यान से बेटा ई थ्रीजी है" दो गियर वाली हीरोपुक ना समझना हाँ कितना रुपया चाहिए पाँच सौ मे काम चल जाएगा मै कुछ बोला नही बस पैसे और थ्रीजी लेकर निकल लिया, अब अपने चौराहे पर आकर चाय पीने लगा चाय क्या पीना था अब तो इंदुमती के आने का इंतज़ार था, चाय पी ही रहा था की इंदुमती आ गयी यही कोई पाँच सवा पाँच का वक़्त रहा होगा हम सिविल लाइंस के लिए निकल लिए।
राजकरन पहुँच कर टिकट लेने के लिए लंबी लाइन देख कर इंदुमती बोली तुम रुको मै टिकट लेती हूँ, मै टिकट के लिए पैसे निकाले तो इंदुमती बोली की मै दे रही हूँ ना तो क्यु परेशान हो, टिकट लेने के बाद शो मे काफी वक़्त था तो हम कॉफी हाउस चले गए, वही अम्बर कॉफी मे सड़क किनारे ही कुर्सी डाल कर बैठ कॉफी आने का इंतज़ार कर रहे थे इन्दुमति उस दिन सुर्ख़ लाल रंग का कुर्ता जिसमे सफ़ेद रंग की कुछ आड़ी तिरछीलाइने खिची हुई थी उसके नीचे सफ़ेद रंग की चूड़ीदार सलवार पहने थी सलवार की पैर के पंजे पर पड़ी सलवटें गोरे पैरों पर काले रंग की साधारण सी चप्पल , जालीदार सफ़ेद चुन्नी जो हवा हर बार अपने साथ उड़ा ले जाना चाहती थी बेतरीबी से बंधे बाल हर बार मांथे को चूम रहे थे, और इंदुमती हर बार उन्हे हटा कर अपने कान के पास कैद कर देती पर जैसे वो कैद मे रहना ही नही चाहते थे हर समय मांथे के साथ साथ होंठो पर भी अपनी मौजूदगी का एहसास करा जाते, इंदुमती को देख कर लग रहा था की यही सौंदर्य का चरम है, जिस तरह वो बार बार हवा मे उड़ रही अपनी चुनरी संभालती कभी अपने बालों को कान के ऊपर फंसा देती इस बेतक़्लुफ़ी के साथ भी कितना आत्म विश्वास था उसके चेहरे पर नज़र एक पल के लिए भी हटाने का मन नही कर रहा था, इतने मे कॉफी वाला कॉफी लेकर आया और मै इंदुमती के चेहरे पर ही खोया था जाने क्या ढूंढ रहा था जैसे उस दिन सब कुछ जान लेना चाहता था, इंदुमती ने कॉफी लेते हुये जैसे मुझे नींद से जगाया, मै थोड़ा झेपते हुये कॉफी पकड़ी इंदुमती बोली क्यु जी कहाँ खो जाते हो, अभी प्रीती ज़िंटा के डिम्पल देखना, मै चुप चाप कॉफी पिता रहा जैसे कोई चोर चोरी करते पकड़ा गया हो, कॉफी पीने के बाद हम राजकारन पहुंचे मैंने स्टैण्ड मे थ्रीजी खड़ी की और हॉल मे पहुंचे तो फिल्म शुरू हो चुकी थी.....................
क्रमश;..........