रात रजनी की विदाई
इंदुमती का सातवां पन्ना
इंदुमती को छोड़ कर आगे को बढ्ने ही वाला था की इंदुमती बोली " कस मे कैसी गुड नाइट" उसके उन शब्दों मे जितनी ठंढक थी उससे कहीं ज्यादा ठंढा उसका चेहरा था एक दम बर्फ सा जमा हुआ बिना किसी भाव के जैसे भावनाओ की आंच मे पिघलना चाहता हो और उस बर्फ के ठंडे टुकड़े को कोई उत्तर के किसी ठंडे मैदान मे कोई छोड़कर जा रहा हो, पर मेरा मन कह रहा था की मै इस टुकड़े को उठा लूँ और मैंने वही किया मै चाह कर भी आगे नही जा सकता था, दिन भर की उमस के बाद जैसे संगम से ठंडे हवाओं के झोंके अल्लपुर को ठंडक दे रहे थे, मै वापस इंदुमती के करीब आ कर खड़ा हो गया पर कुछ बोला नही शायद बोलने के लिए कुछ था नही और अब मै उसे जाने के लिए कह नही सकता था, हवा के झोंके हर बार आ कर हम दोनों से कुछ कहते पर हम दोनों मे से कोई उस चुप्पी को तोड़ना नही चाहता था, मै तो उस खामोशी को हमेशा के लिए अपने पास समेट कर अपने पास रखना चाहता था, कुछ कहने के लिए इंदुमती की तरफ देखता और मुह खुलता भी तो शब्द गायब ही हो जाते इंदुमती अपने हांथ की सबसे छोटी उंगली पर पहनी हुई मोती की अंगूठी को घुमा रही थी, जैसे कोई अपराध बोध हो उसके मन मे मुझे रोकने को लेकर, या शायद कुछ कहना चाहती थी, मैंने फिर एक बार कुछ कहने की कोशिश की और जैसे ही मै बोला इंदुमती ठीक उसी के साथ ही उसने भी कुछ कहने की शुरआत की अमित,,,, मै बोला हुम्म बोलिए वो बोली तुम क्या कह रहे थे मैंने कहा मेरी छोड़ो राजकुमारी तुम बोलो, मै ये कह रही थी कि कहीं चाय नही मिलेगी क्या अब अगर एक एक चाय हो जाय तो फिर वापस घर। पर अभी चाय के लिए कहाँ जाना पड़ेगा इंदुमती बोली , प्रयाग सिविल लाइंस जंक्शन जहां बोलो वही चलते है , इंदुमती ने जंक्शन के लिए कहा तो मै बोला चलो तुम चलाओगी , तो वो बोली नही नही तुम ही चलाओ सिविल लाइंस से निरंजन के पास से निकल चलेंगे,
अब अपनी हीरोपुक सिविल लाइंस की तरफ चल दी सिविल लाइंस के कुछ ढाबे जो सड़क के किनारे बने हुये थे वहाँ ढाबे के छोटू बर्तन साफ कर रहे थे, उनके श्रम के संगीत को साफ सुना जा सकता था, ऐसे ही सैकड़ों छोटुओं का श्रम ही तो था जो सिविल लाइंस की शाम मे जान डालता है , मार्क्स भी कुछ श्रम या श्रम शक्ति जैसी ही बात किया करते थे हाँ उनकी बातों मे एक चीज और थी श्रम मूल्य शायद वो यहाँ नही था श्रम तो था पर श्रम मूल्य नही ये इलाहाबाद ही नही छोटुओं के श्रम का मूल्य कहीं नही होता वैसे मार्क्स गंभीर विषय है हम जैसों के बस की बात नही,इन छोटे तारों की चमक ज्यादा थी या आसमान मे टिमटिमाते तारों की ये सवाल मन को परेशान कर रहा था तो जब आसमान की तरफ देखा तो बस इतना याद आया की " तुम ही रात को दिन मे बदलते हो और दिन को रात मे, और तुम्ही मौत से ज़िंदगी को लाते हो और ज़िंदगी को मौत से और बिना सामर्थ्य वालों पर खुश हो जाने पर तुम्ही खुद सहारा देते हो" हे ईश्वर रहम कर इन बच्चों पर क्या यही तेरा रूप है । हम छोटुओं को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ गए और निरंजन सिनेमा होते हुये जानसनगंज से जंक्शन पहुँच गए।
छोटुवों का श्रम अभी भी मेरे कान मे चिल्ला चिल्ला कर जैसे कह रहा था की हम अपने श्रम के मूल्य मे ही जीवन बिता रहे है तब तक मेरे जीवन मे श्रम मूल्य किताबी बात ही थी इसके अनुभव को मै पूरी तरह समझ नही सका था।हम जंक्शन के पास होटल गुलाब मेंसन के बाहर सड़क की एक चाय की दुकान मे थे, इंदुमती चाय के लिए बोलने लगी दो चाय अलग से बनाना भईया थोड़ा कम शक्कर की, उस दुकान मे भी अधिकतम श्रम बच्चों का ही दिख रहा था एक बुजुर्गान एक नौजवान और पाँच छोटे बच्चे दुकान को अपने श्रम की ऊर्जा दे रहे थे, इंदुमती बोली क्या बात है इतना सन्नाटा काहे खींचे हो, कुछ नही बस यूं ही और पहली बार मार्क्स को लेकर मन मे जिज्ञासा बढ़ रही थी, इंदुमती की चाय आ गयी थी चाय अच्छी थी शायद रात के इस श्रम का परिणाम अच्छा लग रहा हो ऐसा मुझे लगा हो भी सकता है था या नही भी, इंदुमती खुश थी बार बार ऐसे बांहे फैला रही थी जैसे खुले आसमान मे उड़ना चाहती हो वो कह रही थी इस तरह आज़ादी से घूमना कितना अच्छा लगता है ना। सच मे शुक्रिया दोस्त इस चाय के लिये, मज़ा आ गया यार घड़ी देखो टाइम कितना हो रहा है , ढाई बज गया राजकुमारी अब आगे का, वो बोली अभी कुछ देर यहीं घूमते है ना फिर बाद मे चलेंगे आज घर जाने का मन नही है ।
मै इंदुमती को स्टेशन के अंदर ले गया दो प्लेटफॉर्म टिकट ली और बोला चलो राजकुमारी कुछ नया देखो तमाम चीजो को आज दूसरे नज़रिये से देख पाओगी क्यूकी ना आज कहीं जाना है ना किसी का इंतजार है, स्टेशन का व्हीलर बुक शॉप जिसमे वो लोग हमेशा भीड़ लगाते है जिन्हें किताबें लेनी ही नही है लेने वाले को पता होता है क्या लेना है वो लेकर आगे निकलता है पर जिसे वक़्त गुजरना है, बेवजह बकैती करता रहता है, कितने लोग है जो रोटी के लिये महाराष्ट्र और गुजरात दिल्ली जाने वाली गाड़ियों की जनरल बोगियों मे भूसे सा लदा हुआ जाते है । ये श्रम है जो अपना घर छोड़ कहीं और भाग रहा है और ये वही श्रम है जिससे गुजरात महाराष्ट्र दिल्ली की चमक है । पर वहाँ किसी को पता नही होगा की जो टाई बांध के वो अपने कंपनी की कामयाबी की कहानी सुनाते है उसे बनाने बाली ऊर्जा रेलवे के टायलेट मे बंद होकर पूर्बी उत्तरप्रदेश से आई है । वही कामयाबी की हकदार है। वहीं एक बूढ़े चचा प्लेटफॉर्म पर बैठे थे और ट्रेन आने पर उसके पास तक जाने के लिये लाचार थे उन्हे मैंने इंदुमती के साथ सहारा दिया उनका टिकट एसी प्रथमश्रेणी का था बेटा स्टेशन छोड़ कर चला गया था चचा बता रहे थे की एसी की टिकट थी तो बेटा बोला की आप चले जाना उसमे कहाँ भीड़ होगी, पर मै ये नही कह पाया की ट्रेन मे कैस बैठूँगा, अरे चचा छोड़ो भी मै आपको ट्रेन मे बैठाने ही तो आया था मै बोला, चचा को उनकी बर्थ मे बैठा कर हम ट्रेन से नीचे उतर रहे थे तो चचा बोले बेटा अपना नाम तो बताते जाओ और मेरा नम्बर ले लो कभी कोई काम हो तो बता देना, चचा का बेटा पुलिस मे ओहदेदार अफसर था, मैंने कहा अब रहने भी दीजिये चचा फिर नम्बर लिख ही लिया लगा की चचा को भी लगेगा की नम्बर लिखा कर उन्होने अपना ऋण चुकता कर दिया जो उस वक़्त उनकी आंखो मे साफ देखा जा सकता था । हम ट्रेन चलने तक वही प्लेटफॉर्म पर ही रहे और और फिर उन तमाम आते जाते लोगों की भागमभाग से बाहर निकाल आए,
अब हमे वापस अल्लापुर जाना था, इस बार इंदुमती हीरोपुक चला रही थी, मै सोच रहा था की कितना पैसा कितना समर्थवान आज उ चचा के पास पैसे भी थे प्रथमश्रेणी का टिकट था पर प्लेटफॉर्म से उठ कर ट्रेन मे चढ़ने का समर्थ नही था जो कुली उनके पास था वो भी ज्यादा पैसे की लालच मे उन्हे छोड़ गया था, ये पैसा फिर और ज्यादा पैसा क्या है इसका मतलब उस वक़्त एक पुरानी घटना याद आ रही थी "कहीं बाढ आई थी एक सेठ जो सोने के बहुत से गहने पहने था और ब्रेड बैंचने वाला और कुछ बच्चे बाढ मे फसे थे सभी को ज़ोरों की भूंख लगी थी सेठ ब्रेड वाले को अपने सोने के गहने दे कर ब्रेड लेना चाहता था तो ब्रेड वाले ने ये कह कर मना कर दिया की जब तक बच्चे नही खा लेते तब तक मै आपको ये ब्रेड नही दे सकता'' कई बार आपका पैसा भी आपके काम नही आता, मन काफी भारी हो रहा था, इंदुमती जब आलोपी मन्दिर के आगे जाने लगी तो मैंने कहा की कहाँ जा रहे है हम अभी भी घर नही चलना क्या, वो बोली बस बँधवा तक चलते है फिर थोड़ी देर रुक कर आ जाएंगे ।
बँधवा मे पहुँच कर हनुमान मन्दिर के थोड़ा पीछे ही किसी पंडा जी की बेंच पड़ी थी उसी मे बैठ गए गंगा, यमुना दोनों बाढ़ मे थी संगम का पानी एक ठहरी हुई झील की तरह लग रहा था, इंदुमती कह रही थी की जंक्शन से अच्छा यही आ गए होते कितनी शांति है यहाँ, अंधेरा धीर धीर कम हो रहा था मॉर्निंगवॉक वाले भी अपनी छड़ी के साथ दिखने लगे थे पूरब का आसमान गुलाबी हो रहा था यही उषा की लाली होगी, रात के सप्तर्षि के चक्र को तो अक्सर देखता था पर उषा की लाली एक लंबे समय के बाद मिल रही थी, रात रजनी की विदाई के साथ उषा की लाली के स्वागत मे इलाहब्बाद गंगा यमुना के साथ खड़ा था, उषा की लाली मे भी अपना एक अलग नशा है या यूं भी हो सकता है नशेड़ी हर जगह अपना नशा ढूंढ ही लेता है।
उषा की लाली तपन मे लाल हो इससे पहले हम घर जाते पूरी रात घूमने के बाद भी लग रहा था की अभी अंधेरा कुछ देर और रहता तो बेहतर था, इंदुमती कह रही थी कितना अजीब है ना जहां आज पानी भरा है वहाँ कुछ दिनों बाद एक नया शहर बनेगा जो सबसे अलग होता है। मैंने कहा राजकुमारी अब चलें नही कहीं ऐसा ना किसी उस शहर के बसते बसते हम उजड़ जाये, अब घर चले इंदुमती बिना कुछ बोले हीरोपुक की चाभी पकड़ा दी और हम घर के लिए चल दिये.........
क्रमशः..................