सोमवार, 20 अक्टूबर 2014

                                                                 प्रेमचंद की निर्मला

                                                               इंदुमती  का नौवां पन्ना 

बहुत कुछ बदल रहा था पसन्द नापसंद सब कुछ, अब मै उस दौर मे था जब आप अकेले मे भी बिना आईना देखकर हांथ अपने बालों पर घुमाते है और चेहरा किसी और का नज़र आता है, होता है शायद आपके साथ भी हुआ हो, अब नब्बे के दशक के उदितनारायन, कुमार सानू पसन्द आ रहे थे अकेले बैठे बैठे भी मुसकुराता रहता था, अपने कपड़ों और पहनावे को लेकर तब पहली बार गंभीर हुआ था उसके पहले तो स्लीपर और लोवर मे पूरा इलाहाबाद घूम लेता था कई बार सिनेमा देखने भी लोवर मे ही गया था, इतना कुछ बदल रहा था और मुझे पता नही चला, बस मै भी इन सब बदलावों के साथ बढ़ता जा रहा था जो भी था सब चरम मे था अब किसी का बस नही था उसमे मेरा भी नही अब उपाध्याय की कही बात का भी फर्क नही पड़ता, हाँ अब किताबों के साथ एफ़एम या साउंड धीरे धीरे चलता ही रहता था, किशोर के गाने भी गंभीर हो कर सुने जाते थे,
उस दिन जब ट्रेन चलने लगी तो इंदुमती ने एक प्लास्टिक का थैला पकड़ा दिया, अब ट्रेन चल रही थी तो मैंने ले लिया बिना कुछ पूंछे, पूंछने का कोई मतलब भी नही था जब पहले पूछा था तो बोली थी की कुछ किताबें है, और ड्रेस है जो सिविल लाइंस मे बदलनी है, अब तो समझ आ ही गया था की क्या है बस खोल कर देखने का इंतज़ार था, पर इस बार जितना सोचा था उपहार मे कुछ उससे अधिक ही था कमीज़ अमृता प्रीतम की एक किताब के साथ कार्ड और एक गुलाबी फूल बने कागज़ मे ख़त, अब ख़त को साझा करने का मन नही है, हाँ ख़त मे अमृता प्रीतम की किताब के लिए लिखा था की ये वो पहली कड़ी है जिसने मुझे तुमसे मिलाया ख़त के आख़िर मे एक लाइन थी
"कुछ माहौल जुदा था कुछ अहसास भी जुदा थे 
रुका था वक्त भी, जब तुम हमसे दूर जा रहे थे"
ट्रेन अपनी रफ्तार से बढ़ रही थी महानगरी का इलाहाबाद के बाद अगला स्टोपेज मानिकपुर है पर आम तौर पर ये इलाहाबाद मानिकपुर के बीच कई बार रुकती है पर उस दिन शायद वो भी जल्दी मे थी ढाई घंटे के उस सफर मे ना जाने कितनी बार मैंने उस ख़त को पढ़ा, मानिकपुर स्टेशन मे विवेक पहले से ही मेरा इंतजार कर रहा था विवेक मेरा स्कूल के दिनों का साथी था उसके साथ मै सीधे घर पहुंचा मम्मी पापा से मिला बस मन कहीं और था विवेक से भी ज्यादा बात नही कर पा रहा था , विवेक कुछ लप्पू झन्ना टाइप का था जो छीछा लेदर ज्यादा करते है मम्मी खाना दे रहीं थी तभी वो मम्मी से बोला चाची अब इसकी शादी की कुछ सोचो, वो जितना सरलता से ये बात बोल गया मम्मी उतनी ही गंभीर थी इस विषय को लेकर बस पापा थे जो टालते जा रहे थे और पापा ने वही बात शुरू की हमेशा मेरे आने पर होती थी इस बार पापा जी कुछ कड़ाई के साथ बोल रहे थे की तुम करना क्या चाहते हो जिस तरह तुम्हारी पढ़ाई चल रही है मुझे नही लगता की तुम सीपीएमटी निकाल पाओगे बीएमएलटी क्यो नही कर लेते मै बिना कुछ बोले खाना खा रहा था पापा बोले प्रेमचंद पढ़ कर कोई सीपीएमटी का एक्जाम निकाल पाया है तुम सिर्फ वक़्त बरबाद कर रहे हो "तब कुछ बोला नहीं पर कई बार सोचता हूँ की शायद पापा सही थे" पापा अभी कुछ दिन और इलाहाबाद मे हूँ फिर देखता हूँ कह कर खाने की मेज से चुपचाप निकल लिया,

कब जाना है इलाहाबाद मम्मी ने पुंछा, कल सुबह ही निकलूँगा कोचिंग जाना है कह कर विवेक के साथ बाहर निकाल आया और विवेक को गरियाना शुरू कर दिया,विवेक बोला तो बोला भइया का गलत बोले है हम सब समझ गए है कुछ तो गड़बड़ है पहले तो तुम शाम को आए हमे कोई भाव नही दे रहे हो ऊपर से सुबह की गाड़ी से जा भी रहे ई सब का माजरा है । अब बोलो सच बताना कुछ तो है ना, अच्छा नाम तो बता दो कौन है , नही बे कुछ नही है बस मन नही है और कोचिंग भी है तभी जाना पड़ रहा है, ठीक है भाई न बताओ मुझे आना है इलाहाबाद तो सब समझ लूँगा एक दो दिल रुकूँगा भी तुम्हारे पास, विवेक की सिनेमा वाली आदत बहुत खराब थी दिन मे तीन तीन सिनेमा देख लेता था इसी लिए मै उसके साथ नही जा पाता था, विवेक सिगरेट नही पिलाओगे का बे बस बकैती पेल रहे हो ले कर आया हूँ भाई पर पियेंगे कहाँ चल स्टेशन चलते उधर ही कहीं स्टेशन पहुँच कर मैंने सुबह की ट्रेन का पता किया फिर आगे तालाब के पास जा कर दोनों एक ही सिगरेट मे सुट्टा लगाते रहे, मै था तो विवेक के साथ पर अपने को बिलकुल अकेला महसूश का रहा था विवेक को उसके घर छोड़ कर एक बार फिर तालाब के किनारे बैठा रहा जाने कब ये अकेलापन मुझे अच्छा लगने लगा,

रात भर ठीक से सो नही पाया सुबह चार बजे ही स्टेशन पुहुंच गया, उस दिन स्टेशन आम दिनों से ज्यादा ही साफ था कुछ यात्री प्लेटफॉर्म मे सो रहे थे जैसे वो स्टेशन सिर्फ सोने के लिए आए हों मानिकपुर स्टेशन मे बहुत से ऐसे ही रहते है जो सोने ही आते है स्टेशन मे वो अलग अलग तरह के काम करने वाले होते है कुछ ट्रेन मे समान बेचने वाले कुछ समान निकालने वाले कुछ सफाई वाले और इनकी सुरक्षा के लिए पुलिस थाना भी स्टेशन मे है , स्टेशन के होर्डिंग नए हो रहे थे अब मानिकपुर मे भी अँग्रेजी सीखने वाले आ गए थे ये अलग बात थी वो अपनी दुकान मानिकपुर मे खोल नही पाये पर होर्डिंग्स जरूर लटका गए थे, आज ट्रेन का इंतज़ार परेशान कर रहा था और एक वक़्त था जब मै सोचता था ट्रेन छूट जाये और एक दिन घर मे रुक जाऊँ, एक लंबे इंतज़ार के बाद दादर गोरखपुर एक्स्प्रेस प्लेटफॉर्म पर आ गयी मानिकपुर के कुछ उँगलियों मे गिनती भर कुली ट्रेन की तरफ दौड़े इन तमाम दौड़ते भागते लोगों के बीच मै भी अपने लिए खिड़की के पास वाली एक सीट ढूंढ ली, ट्रेन 

अब मुझे लेकर दौड़ रही थी शायद उसे भी इलाहाबाद का इंतज़ार था,
इलाहाबाद है ही ऐसा शहर की बस मोहब्बत हो ही जाती है, पुरबिया बोली अवध की तहज़ीब कुछ बुंदेलों की गर्मी सब तो था इलाहाबाद मे चौड़ी सड़के जिन्हे देख कर लगता था की आप लखनऊ मे है, पतली गलियाँ जो इलाहाबाद मे होते आपको बनारस का एहसास करा जाती थी सुबह धुंध भरी हल्की ठंढक के साथ दोपहर मे तपती धूप तो शाम अक्षत यवोना की तरह सामने होती थी, बस एक अनोखे मिज़ाज वाला शहर है इलाहाबाद , गाड़ी इलाहाबाद गऊघाट पुल मे आयी तो मै जैसे नींद से जागा और अपना बैग कंधे पर डाल कर गेट के पास खड़ा हो गया, स्टेशन मे मुझे कोई लेने नही आने वाला था न ही कभी कोई आया था पर इस बार शायद किसी को तलाश कर रहा था,
कमरे का दरवाजा खोल ही रहा था की शुभचिंतक उपाध्याय आ गए जन्मदिवस की बधाई देने लगे और बोले की बहुत बड़े वालों हो मे कल बताया भी नही और निकल लिए चलो आज खाना मेरे साथ ही खा लेना पर शाम को कुछ प्रोग्राम बना लेना बेटा सस्ते मे नही निपटोगे, की चेतावनी के साथ बड़े भइया गये।

शाम को कोचिंग के बाद चौराहे पर चाय पी रहा था सुबह से अब तक कई जगह कमरे की तलाश कर चुका था पर कुछ ठीक समझ नही आया था, तब तक इंदुमती भी आ गयी थी, कब आए हो घर से, इंदुमती ने पुछा सबेरे ही आ गया था भइया एक चाय और दे दो चाय पीते ही मैंने उसे बताया की आज कई जगह कमरे के लिए गया पर कुछ समझ नही आया कटरा मे तो मिल रहा था पर दूर बहुत है, हम समान बदलने के झंझट से बचने के लिए पास मे ही चाहते थे, इंदुमती बोली चलो कोई नही एक दो दिन मे देख लेना कहीं न कहीं मिल ही जाएगा पास रहेगा तो बेहतर ही है, चाय खत्म करके हम किताबों की दुकान मे खड़े थे, कमरे को ले कर बात हो ही रही थी तो मैंने दुकान वाले से पुछा गुरु कोई कमरा तो नही मिल जायेगा यहीं कहीं आस पास दो चाहिये एक ही जगह हम दोनों को चाहिये, दुकान वाला बोला मिल तो जायेगा पर चार पाँच दिन लगेंगे दुकान के ऊपर वाले ही है एक तो खाली है एक खाली होना है जिस दिन हो जाएगा आ जाइए मै आज किराए की बात कर लेता हूँ , आप कल आ जाये बात करा देता हूँ ,

हम वापस अपने लॉज आने लगे इंदुमती बोली रात का खाना बनाओगे या मै ले कर आ जाऊँ नही आज उपाध्याय के साथ खाना है , खाना क्या है उसे लेकर कहीं बाहर जाना है खाने, चलते चलते मैंने इंदुमती से कहा जब तक कमरा बदलते नही है तब तक इस बारे मे किसी से कोई बात ना करना मित्तल साब को तो बता ही दिया होगा, मै कल डॉ साब को बोल दूंगा, इंदुमती बोली तो मेरे साथ कब चलोगे, मै बोला कहाँ चलना है, अभी बर्थडे तो हमने मनाया ही नही और आज तो कुछ ठीक से बात भी नही हो पायी इंदुमती बोली, हो जाएगी वो भी हो जाएगी और मै क्या बताऊंगा राजकुमारी जो बोलेंगी वही होगा तो कल सुबह मिलना फिर बात करते है , अब चलता हूँ उपाध्याय बैठा होगा उसे लेकर जाना है
उपाध्याय रुद्राक्ष की माला और अपनी कुछ पत्थरो वाली अंगूठियाँ उतार कर तैयार थे, चलबों गुरु हाँ भाई चलने के लिए ही तो इंतजार कर रहे थे, मै बोला ई सब का है मे ई माला अंगूठी काहे उतार दिया, अब आज अंडा खाना है तो ई सब थोड़े पहिनेगे उपाध्याय बोला, तुमसे किसने कहा की अंडा खाना है मै तो नही खाता अंडे उपाध्याय ज़ोर से हँसा और कहा अब हमसे ई पंडिताई ना पेलो हम देखे है तुम्हें अंडे की दुकान मे कई बार ऊ मैडम के साथ अब हमहिन मिले है चूतिया बानवेन का , मै उपाध्याय को समझाता रहा की मै नही खाता वो राधा खाती है तो उसी के साथ दुकान मे देखा हो पर वो विश्वास करने के पक्ष मे था ही नही और वो कभी नही माना उसे हमेशा लगता था की मै चुरा कर अंडे खाता हूँ उपाध्याय की पसंद के हिसाब स उस दिन पीएचक्यू के पास एक ढाबे मे खाना खाया उपाध्याय वहाँ भी नाराज़ हुआ जब मै अंडा की जगह अपने लिए कोफ़्ता मंगा लिया खाने के बाद उपाध्याय जी ने प्रेमचंद की निर्मला उपहार मे दी निर्मला मुझे प्रेमचंद की रचनाओ मे सबसे ज्यादा पसंद थी

वापस आ कर कॉफी हाउस मे कॉफी और सिगरेट सुलगाई उपाध्याय थोड़ा गंभीरता के साथ वो लड़की भाई आपके कमरे मे आती है शायद डॉ साब और आंटी जी को ठीक नही लगता मुझसे कहा है की मै आपसे बात कर लूँ और लॉज मे कोई लड़की ना आए ये ध्यान रखे, मैंने कहा परेशान ना हो भाई कल मै बात कर लूँगा डॉ साब से और हो सकेगा तो रूम भी बदल लूँगा फिर हम अपने लॉज चले आए

अगली सुबह इंदुमती लॉज मे फिर आ गयी अब मै उसे मना भी नही कर सकता था, वो आते ही सिर हिला कर पुछा कैसे हो और आंखो और हांथ से इशारा करते हुये चाय के लिए पुछा तो नहीं मे सिर हिला दिया वो बिना कुछ बोले ही चाय का पानी गैस मे रख कर मिल्क पाउडर मिलाने लगी कुछ गुनगुना नही रही थी जब चाय ले आयी तो चाय पीते हुये मैंने पुछा - "तो राजकुमारी कहाँ चलना है कुछ सोचा नही इस बार तुम बताओगे बर्थड़े तुम्हारा था, मै चाय का कप मेज मे रखते हुये बोला मै तो चाहता हूँ की तुम यही रहो और ऐसे ही दिन भर चाय पीते है, इंदुमती ने मेरा सर अपनी गोद मे रख लिया और माथे को चूम कर बोली तो ठीक है खाना भी यहीं बना लूँगी पर कोचिंग तो जाना है ना, अरे राजकुमारी कोई नही फिर कभी अभी रूम तो बदल ले फिर तो रोज तुम्ही को बनाना है , इंदुमती ने मुझे उठा कर बैठा दिया और बोली तो ये बात है मै नही बनाने वाली रोज का खाना हाँ चाय मिल सकती है वो भी कभी कभी चलो ठीक है अभी तो बना लो, वो बोली हाँ वो किताब के दुकान वाले भइया मिले थे तो बोले है की तुम बात कर लो और कल से आ सकते है आप लोग आज वो दूसरा वाला रूम भी खाली हो जाएगा

सोमवार, 6 अक्टूबर 2014

                                                                        हैप्पी बर्थडे 

                                               इंदुमती  का आठवां पन्ना 


इंदुमती को घर के पास छोड़ा मित्तल साब अखबार वाले के पास खड़े कुछ बातें कर रहे थे मेरी मित्तल साब से कोई मुलाक़ात नही थी फिर भी मैंने औपचारिकता बस मित्तल साब से नमस्कार कर लिया और उनका जवाब भी ऐसा ही था जैसे वो अभिवादन का जवाब देना नही चाहते हों पर फिर भी ये दूसरी बार मै उन्हे नमस्कार ठोक रहा था इंदुमती सीधे गेट के अंदर चली गयी , इस बार पलटकर कुछ कहा नही और मै भी अपने लाज चला गया, अब दीपक भाई की थ्रीजी वापस करने जाना था, पहले लगा की नहा कर सो जाता हूँ, फिर मन मे आया की अभी वक़्त मे दे आता हूँ नही फिर दुबारा नही मिलेगी, तो बाघंबरी जाना ही ठीक था, सोमवार का दिन था, गुनगुन, सगुन को डॉ साब स्कूल छोडने के लिए बस का इंतज़ार कर रहे थे, सप्ताह का पहला दिन इतवार होता है पर जब कि हमे पाँचवी तक ये बात समझ नही आई , संडे मंडे पहली दूसरी मे ही सीख गए थे, हम हमेशा सोमवार को ही सप्ताह का पहला दिन मानते रहे इतवार की छुट्टी के बाद सोमवार को स्कूल जाना बिलकुल पसंद नही था, हाँ स्कूल पहुँचने के बाद ये नापसंदी हमेशा भूल जाती, स्कूली दोस्तो मे मस्त हो जाते, लंचबॉक्स लंचटाइम की मस्ती सब कुछ ऐसा था की याद आ जाये तो तमाम बड़ी बड़ी बातें बेकार लगती है, वक़्त है ही ऐसा जो हमेशा गुज़र जाने के बाद वापस नही आता।

बाघंबरी से दीपक भाई को हीरोपुक वापस करके अपनी साइकिल से वापस अल्लापुर दीपक भाई रोक रहे थे बोले भी की चलो कचौड़ी खाते है, दीपक भाई के पास जाना हो और बिना कुछ खाये पिये वापस आना ये भी एक उपलब्धि ही थी कुछ लोग इस बात पर गंभीरता से ध्यान रखते है की उनके पास आने वाला बिना कुछ खाये ना जाये , ये वही लोग है जो हम जैसे काहिलों को गालियां देते रहते है, इनकी चर्चा भी अक्सर इसी के आस पास घूमती रहती थी उसके यहाँ गए तो उसने ये खिलाया उसने वो नही खिलाया इलाहाबाद मे तमाम ऐसे लड़के थे खाने पीने को लेकर बहुत गम्भीर रहते थे कल खाने मे क्या बनाना है ये भी उनकी चिंता का विषय होता था, और मै खाना बनाने से बचने के लिए ऐसी मित्रता से बचने की कोशिश कभी नही करता था,

वापस लाज पहुँच कर सो गया पर उपाध्याय जैसे पड़ोसी के होते हुये ऐसा हो ये संभव भी नही था कुछ देर बाद उपाध्याय जी आ ही गए और मुझे इस तरह हिलाया की जैसे शहर मे आग लगी हो "उठो मे पूरी रात गायब रहो और दिन भर सोना ई सब का है मे इहाँ रात रात भर घूमय आए हो की पढ़य" मै उपाध्याय की चेरौरी करते हुये कहा भइया अभी सोने दो कुछ देर मे सब बताता हूँ, तुम का बताओगे हम सुबह तुम्हें मटियारारोड से आते देखा है । अब ई बताओ की इत्ते सबेरे कहाँ से आए गुरु वो भी उसके साथ,,,, हाँ भाई कुछ काम था सब समझ रहे है गुरु आज कल बहुत जरूरी जरूरी काम कर रहे हो उ भी पूरी पूरी रात इतना कह कर उपाध्याय कुटिलता के साथ मुस्कुराया , उपाध्याय की बाते मुझे कुछ अच्छी नही लगी तो मै थोड़ा सख्त होते हुये कहा उपाध्याय जी वो मेरी बहुत अच्छी दोस्त है और मै उसका सम्मान करता हूँ कोई भी बात या राय बनाने से पहले ये बात ध्यान मे रखिएगा, उपाध्याय अरे भाई जी आप भी हमे पता नही है क्या पर उयाध्याय की बाते और उसकी मुस्कुराहट मुझे परेशान कर रही थी उस कोचिंग के बाद शिवकुटी चला गया आशीष के कमरे मे मन मे काफी कुछ था जो परेशान कर रहा था जिसे मै ठीक से समझ नही सकता था कई बार जब मै परेशान होता था तो लगभग अंधेरा होने के बाद गंगा के किनारे चला जाता था उस दिन भी यही सोच रहा था की आशीष को साथ लेकर गंगा किनारे बैठूँगा
आशीष के कमरे मे ताला बंद था मेरी निराशा बढ़ती जा रही थी जैसे रक्तसंचार कम हो रहा हो एक तरफ लग रहा हो जैसे मै किसी बड़े गुनाह से छिपने के लिए भाग रहा हूँ, आशीष जब भी कहीं बाहर जाता हो चाभी बाहर लगे मनीप्लांट के गमले के नीचे रखी होती थी, पर जब इलाहाबाद से बाहर होता तो चाभी साथ ही ले जाता उस दिन मुझे वहाँ चाभी मिल गयी, शाम लगभग सात बजे तक कमरे मे ही आशीष का इंतज़ार करता रहा फिर एक नोट लिख कर चाभी मनीप्लांट को देकर चाय पीने के लिए निकल गया, रात मे बहुत देर तक गंगा किनारे बैठा रहा हल्की बारिश होने लगी थी वापस आने पर भी कमरे मे ताला लगा हुआ था, मनीप्लांट से चाभी लेकर जब कमरे मे गया तो नोट ठीक वैसा ही रखा था जैसा मै छोड़ कर गया था, कुछ समझ नही आ रहा था की अब कहाँ जाऊँ रात काफी हो चुकी थी कुछ देर किताबें पलटता रहा फिर वही सो गया उस रात मै ठीक से सो नही पाया तीन बार नींद मे उठा पहली बार जब किसी ने मेज मे रखा हुआ चाय का गिलास गिरा दिया शायद चूहा या और कुछ वैसा ही रहा होगा उसके बाद बहुत देर तक लाइट जला कर ये जानने की कोशिश करता रहा की गिलास जो मेज के बीच मे रखा था नीचे कैसे गिरा, एक बार फिर सोने की कोशिश कर रहा था तो चमक के साथ बादल इतनी ज़ोर से गरजे जैसे बिजली आँगन मे ही गिरी हो बारिश की तेज आवाज कमरे से साफ सुनी जा सकती थी तीसरी बार वही सुबह के चार बजे रहे होंगे नींद खुली मै पसीने से भीगा हुआ था ऐसा लग रहा था जैसे कोई सीने मे बैठ कर गला दबा रहा हो इस बार डर अपने चरम पर पहुँच गया था, फिर सो नही सका एक उमस भरी सुबह का इंतज़ार था कुछ देर बिस्तर मे ही बैठा रहा सर फट रहा था कमरे का अंधेरा डरा देने वाला लग रहा था बारिस बंद थी कमरे के बाहर नल से पानी टपकने की आवाज साफ सुनी जा सकती थी, एक नोट लिख कर मेज मे छोड़ कर चाभी मनीप्लांट को वापस दे कर निकाल आया , सुबह की चाय के लिए प्रयाग स्टेशन मे रुक गया तब तक कहीं कोई और दुकान खुली भी नही थी, मै अपने को एक दम निरुद्देश पा रहा था कुछ समझ नही आता क्या करना या क्या करना चाहता हूँ, कुछ था मन मे जिसे नकारने के लिए बस भाग रहा था, अपने आप से झूँठ बोलना आसान नही है पहली बार ऐसा लग रहा था,

अब मै चाय के लिए भी बाहर नही जाता सुबह जार्जटाउन चितरंजन के घर जाता वही पढ़ता फिर वही से कोचिंग और शाम को रूम मे ही चाय बना लेता ये सिलसिला तीन चार दिन चला उपाध्याय ने बताया की इंदुमती आई थी पूछने तो उसने बता दिया है की कुछ नोट्स बनाने है तो वहीं चितरंजन के पास जा रहे है आज कल,

अगस्त की आख़री तारीख़ गुरुवार को थी नीचे वाली आँटी जी ब्रहस्पतिदेव की पूजा कर रही थी जब इंदुमती पहली बार मेरे रूम मे आयी थी मेज खुली हुयी किताब चाय का गिलास मेज मे लुढ़क गया था नीचे बची चाय पेपर मे फैल कर सूख चुकी थी जिसमे चींटियाँ चल रही थी तौलिया दरवाजे मे स्वागत के लिए पड़ा था जूते स्टूल मे रखे हुये थे नीचे रख कर वो बैठी थी जिस तरह वो रूम मे मेरे सामने थी, मै कुछ बोल नही पा रहा था , ऐसा लगा जैसे इंटरव्यू दसवें नम्बर मे हो और नाम सबसे पहले बुला लिया हो, बिना तैयारी के एक्जाम तो देना ही था , मै लाचारी से अपनी हर चीज को देख रहा था जो बेतरीबी से फैली हुयी है, इन सब के बीच एक चीज एक परफेक्ट नज़र आ रही थी वो थी मेरी साहित्यिक किताबों की आलमारी, काफी देर दो जोड़ा खामोश आंखे कमरे मे कुछ तलाश करती रही बस वो एक दूसरे मिल नही रही थी, चाय पियोगी बोलते हुये खामोशी तोड़ते हुये बोला, इंदुमती बिना कुछ बोले ही सहमती जताई, नोट्स तैयार हो गये इंदुमती बोली, हाँ यार हो ही गये , बता कर भी तो जा सकते हो ना तुम्हें नही पता इधर कितना परेशान थी मै और तुम हर बार की तरह भाग गये इस बार भी इंदुमती और कुछ बोलती मैने पुंछा चाय मे कॉफी डाल दूँ मै ऐसे ही पीता हूँ, चाय खत्म हो गयी बहुत सी बाते जो मेरे जाने के बाद हुयी इंदुमती बताती रही और शायद कुछ बातें और भी थी जो वो बताना चाहती थी पर बताया नही, अब यह तय था की हम दोनों एक ही लॉज मे रहेंगे या कोई एसा मकान तलाश करना था जहाँ हम दोनों को रूम मिल सके, जितना उसने बताया था , उस हिसाब से इन सब की वजह मित्तल साब ही थे


मुझे घर आना था दो सितंबर को मेरा बर्थड़े था, इंदुमती चाहती थी की दो की शाम हम कहीं चले, बाद मे वो इस बात को लेकर मान गयी की मै दो को दोपहर की ट्रेन से मानिकपुर निकलूँगा और वापस आ कर कहीं घुमाने ले चलूँगा, इंदुमती की बातों मे अब कुछ अधिकारबोध लगता था जैसे वो कुछ बोले और उस बात को मानना मेरा नैतिक कर्तव्य हो, कमरे की तलाश के लिए मानिकपुर से वापस आने के बाद के लिए कहा, तब तक इंदुमती ने पराठे भी बना लिए थे, अब मुझे भी लग रहा था की हम पास होंगे तो खाने वाली समस्या भी कुछ कम ही रहेगी , खाने के बाद इंदुमती मेरी चीजों को ठीक करने की कोशिस करती रही कोचिंग का वक़्त हो गया था हम दोनों अपनी अपनी कोचिंग चले गये,
दो सितंबर 2000 की सुबह सात बजे ही इंदुमती मेरे रूम एक प्रिंटेड झोले के साथ आ गयी थी जिसमे काँच के टुकड़े जैसे सितारे लगे थे, तब तक मै भगवान को धुवे के साथ छोड़ कर बैठा पेपर पलट रहा था , अचानक से उसने मुझे हॅप्पी बर्थड़े बोलते हुये अपनी तरफ खींचा उसके नरम चेहरे को मै अपने गले के पास महशुस कर रहा था, उसने गहरे नीले रंग की खड़ी कालर वाली कमीज़ के साथ आसमानी रंग की जींस पहन रखी थी, हाँथ में कुछ पत्थरो की माला जैसी ब्रेसलेट डाली थी, ये ब्रेसलेट होटल रॉयल के बाहर लगी दुकान से मैंने ही ख़रीदा था, इंदुमती ने इसे ले तो लिया था, पर मै जनता था की वो उसे बहुत पसंद नही था, फिर भी वो उसके हाँथ में काफी अच्छा लग रहा था, उसके ब्रेसलेट को मै कंधे के पास महसूस कर सकता था, उससे "थैंक यू " बोलना चाहता पर होंठ बस कापते रहे शब्द गले से बाहर आये ही नही, और वो धीरे से मेरे कान मे कुछ फुसफुसा गयी ये सब इतना अचानक था की वो कान मे क्या बोली मै समझ नही पाया या जो समझा था उसे लेकर बात करने की हिम्मत नही हुयी, इंदुमती चाय बनाने लगी चाय रख कर वो झोले से समोसे और अमृत स्वीट हाउस की मिठाई वाला डिब्बा निकालते हुये बोली पनीर की सब्जी भी बना लाई हूँ रोटियाँ यही बना लेंगे, ट्रेन कितने बजे की है, दो बजे महानगरी से जाना है, मै बोला तो ठीक है ना मै भी चलूँगी साथ मे छोड़ने , मैंने कहा और कोचिंग कौन जाएगा , आज नही जाना यार आज तक एक भी दिन का गैप नही किया तो एक दिन चल ही जायगा,
हम स्टेशन मे थे ट्रेन आ चुकी थी इंजन आगे पीछे बदला जा रहा था, ये वही प्लेटफॉर्म था जिसे छोड़ कर हर बार जाता था पर इस बार कुछ अलग था बस इलाहाबाद से आने का मन नही हो रहा था, ट्रेन धीरे धीरे स्टेशन छोड़ रही थी बहुत दिनों बाद कोई इस तरह या पहली बार स्टेशन छोडने आया था.................
क्रमशः.............