शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

                                                                         

                                                                       चाचा नेहरू 


एक चचा जिससे आपका कोई रिश्ता नही ना जाति का धर्म का फिर भी सबके प्यारे चाचा एसे चचा होते है सबके गली मोहल्लों मे शायद आप सबके भी मुहल्ले मे कोई ऐसा चेहरा रहा हो , मेरे गाँव मे भी थे मुन्ना चाचा मेरे जैसे तमाम बच्चों को प्यारे थे बड़ों के बीच वो क्या थे कैसे थे इससे किसी को कोई मतलब नही बस वो बच्चों से प्यार करते थे उनसे हंस कर बात करे कभी टॉफी चॉकलेट खिलते यही सब काफी था मुहल्ले के एक मुन्ना को बच्चों का मुन्ना चाचा बनाने के लिए, एक चीज इन चचा लोगो समान है ये ज़्यादातर लिबरल (उदार) होते है, मै मुन्ना चाचा की कोई कहानी नही सुना रहा हूँ, मेरा मानना ये है की बच्चों का चाचा बनना आसान नही है, तो नेहरू की बहुत सी उपलब्धियों से अलग ये एक असाधारण बात ही है की वो बहुत से बच्चों के चाचा थे और बच्चों को उनमे विश्वास,

आज़ाद भारत का प्रधानमंत्री नेहरू को बनना ही था, गांधी के सपनों का भारत जो बनाना था और नेहरू ने उसकी नीव रखी भी हिंदुस्तान को हिंदुस्थान बनने से रोका अगर उस वक़्त गलती से भी सत्ता संघ जैसी की ताकत के हांथ मे जाती तो देश आज पाकिस्तान की तरह अपनी ही आग मे झुलस रहा होता आज वामपंथी कलमे अगर चल रही है तो वो गांधी और नेहरू के ही सेक्युलर सोच का नतीजा है मुझे पता है आज जो सरकार है उसमे नेहरू और उनके विचार प्रासंगिक नही है पर आजादी के बाद अब तक की हर सरकार ने नेहरू की विरासत को बढ़ाने का काम किया है चाहे वो मण्डल के मशीहा वीपी सिंह रहे हो या जनसंघ के बाजपेयी

नेहरू को अनदेखा करने के लिए आजकल कुछ दक्षिणपंथी पटेल और नेहरू को आमने सामने रख कर पटेल के नाम का लोहा जोड़ रहे है, उनका दावा है की नेहरू पटेल को हटा कर सत्ता मे आए थे, इसी का जिक्र करते हुये पटेल ने लिखा था, आज़ादी के समय मंत्री मण्डल स्वरूप मे चर्चा के समय, नेहरू ने पटेल को एक पत्र एक अगस्त १९४७ को लिखा जिसमे नेहरू कहते है " कुछ हद तक औपचरिकताये निभाना जरूरी होने से मै आपको मंत्री मण्डल मे समलित होने के लिए लिख रहा हूँ इस पत्र का कोई महत्व नही है क्यो की आप मंत्री मण्डल के सुदृढ़ स्तम्भ है, जवाब पटेल ने तीन अगस्त को लिखा "एक अगस्त के पत्र के लिए अनेक धन्यवाद । एक दूसरे के प्रति जो हमारा अनुराग व प्रेम रहा है तथा लगभग तीस वर्षों की हमारी अखंड मित्रता है । उसे देखते हुये औपचारिकता का कोई स्थान नही रह जाता । आशा है मेरी बाकी के जीवन की सेवाएँ आपके अधीन रहेंगी । आपको धेय की सिद्धि के लिए मेरी सम्पूर्ण वफादारी और निष्ठा प्राप्त होगी । 
नेहरू की जगह पटेल को प्रधानमंत्री ना बनाने का जितना दुख दक्षिणपंथी और संघ के लोग जताते है , वैसा पटेल नही सोचते थे वो संघ नही गांधी के सपनों के भारत के हिमायती थे

उस वक़्त के आजाद देशों से भारत की तुलना करे तो समझ आएगा नेहरू का योगदान नेहरू राजनैतिक रूप से मुझे बामपंथी ही लगते रहे , जिस वक़्त नेहरू ने सत्ता संभाली देश का बटवारा धार्मिक रूप से हुआ था ऐसे मे लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था को लागू करना इतना आसान नही नही था पर वो साहस नेहरू मे था और उन्होने कर दिखाया। श्यामा प्रसाद मुखर्जी और अंबेडकर जैसे विचरवान लोगों को साथ लेकर संविधान सभा से संविधान लागू करने का सफर भी साहस भरा था
ऐसे थे चाचा नेहरू बच्चे सबकी मन की बात नही सुनते बच्चों तक पहुचने के लिए एक उदार चेहरे और चरित्र की जरूरत है । ये देश नेहरू के योगदान का ऋणी रहेगा

सोमवार, 20 अक्टूबर 2014

                                                                 प्रेमचंद की निर्मला

                                                               इंदुमती  का नौवां पन्ना 

बहुत कुछ बदल रहा था पसन्द नापसंद सब कुछ, अब मै उस दौर मे था जब आप अकेले मे भी बिना आईना देखकर हांथ अपने बालों पर घुमाते है और चेहरा किसी और का नज़र आता है, होता है शायद आपके साथ भी हुआ हो, अब नब्बे के दशक के उदितनारायन, कुमार सानू पसन्द आ रहे थे अकेले बैठे बैठे भी मुसकुराता रहता था, अपने कपड़ों और पहनावे को लेकर तब पहली बार गंभीर हुआ था उसके पहले तो स्लीपर और लोवर मे पूरा इलाहाबाद घूम लेता था कई बार सिनेमा देखने भी लोवर मे ही गया था, इतना कुछ बदल रहा था और मुझे पता नही चला, बस मै भी इन सब बदलावों के साथ बढ़ता जा रहा था जो भी था सब चरम मे था अब किसी का बस नही था उसमे मेरा भी नही अब उपाध्याय की कही बात का भी फर्क नही पड़ता, हाँ अब किताबों के साथ एफ़एम या साउंड धीरे धीरे चलता ही रहता था, किशोर के गाने भी गंभीर हो कर सुने जाते थे,
उस दिन जब ट्रेन चलने लगी तो इंदुमती ने एक प्लास्टिक का थैला पकड़ा दिया, अब ट्रेन चल रही थी तो मैंने ले लिया बिना कुछ पूंछे, पूंछने का कोई मतलब भी नही था जब पहले पूछा था तो बोली थी की कुछ किताबें है, और ड्रेस है जो सिविल लाइंस मे बदलनी है, अब तो समझ आ ही गया था की क्या है बस खोल कर देखने का इंतज़ार था, पर इस बार जितना सोचा था उपहार मे कुछ उससे अधिक ही था कमीज़ अमृता प्रीतम की एक किताब के साथ कार्ड और एक गुलाबी फूल बने कागज़ मे ख़त, अब ख़त को साझा करने का मन नही है, हाँ ख़त मे अमृता प्रीतम की किताब के लिए लिखा था की ये वो पहली कड़ी है जिसने मुझे तुमसे मिलाया ख़त के आख़िर मे एक लाइन थी
"कुछ माहौल जुदा था कुछ अहसास भी जुदा थे 
रुका था वक्त भी, जब तुम हमसे दूर जा रहे थे"
ट्रेन अपनी रफ्तार से बढ़ रही थी महानगरी का इलाहाबाद के बाद अगला स्टोपेज मानिकपुर है पर आम तौर पर ये इलाहाबाद मानिकपुर के बीच कई बार रुकती है पर उस दिन शायद वो भी जल्दी मे थी ढाई घंटे के उस सफर मे ना जाने कितनी बार मैंने उस ख़त को पढ़ा, मानिकपुर स्टेशन मे विवेक पहले से ही मेरा इंतजार कर रहा था विवेक मेरा स्कूल के दिनों का साथी था उसके साथ मै सीधे घर पहुंचा मम्मी पापा से मिला बस मन कहीं और था विवेक से भी ज्यादा बात नही कर पा रहा था , विवेक कुछ लप्पू झन्ना टाइप का था जो छीछा लेदर ज्यादा करते है मम्मी खाना दे रहीं थी तभी वो मम्मी से बोला चाची अब इसकी शादी की कुछ सोचो, वो जितना सरलता से ये बात बोल गया मम्मी उतनी ही गंभीर थी इस विषय को लेकर बस पापा थे जो टालते जा रहे थे और पापा ने वही बात शुरू की हमेशा मेरे आने पर होती थी इस बार पापा जी कुछ कड़ाई के साथ बोल रहे थे की तुम करना क्या चाहते हो जिस तरह तुम्हारी पढ़ाई चल रही है मुझे नही लगता की तुम सीपीएमटी निकाल पाओगे बीएमएलटी क्यो नही कर लेते मै बिना कुछ बोले खाना खा रहा था पापा बोले प्रेमचंद पढ़ कर कोई सीपीएमटी का एक्जाम निकाल पाया है तुम सिर्फ वक़्त बरबाद कर रहे हो "तब कुछ बोला नहीं पर कई बार सोचता हूँ की शायद पापा सही थे" पापा अभी कुछ दिन और इलाहाबाद मे हूँ फिर देखता हूँ कह कर खाने की मेज से चुपचाप निकल लिया,

कब जाना है इलाहाबाद मम्मी ने पुंछा, कल सुबह ही निकलूँगा कोचिंग जाना है कह कर विवेक के साथ बाहर निकाल आया और विवेक को गरियाना शुरू कर दिया,विवेक बोला तो बोला भइया का गलत बोले है हम सब समझ गए है कुछ तो गड़बड़ है पहले तो तुम शाम को आए हमे कोई भाव नही दे रहे हो ऊपर से सुबह की गाड़ी से जा भी रहे ई सब का माजरा है । अब बोलो सच बताना कुछ तो है ना, अच्छा नाम तो बता दो कौन है , नही बे कुछ नही है बस मन नही है और कोचिंग भी है तभी जाना पड़ रहा है, ठीक है भाई न बताओ मुझे आना है इलाहाबाद तो सब समझ लूँगा एक दो दिल रुकूँगा भी तुम्हारे पास, विवेक की सिनेमा वाली आदत बहुत खराब थी दिन मे तीन तीन सिनेमा देख लेता था इसी लिए मै उसके साथ नही जा पाता था, विवेक सिगरेट नही पिलाओगे का बे बस बकैती पेल रहे हो ले कर आया हूँ भाई पर पियेंगे कहाँ चल स्टेशन चलते उधर ही कहीं स्टेशन पहुँच कर मैंने सुबह की ट्रेन का पता किया फिर आगे तालाब के पास जा कर दोनों एक ही सिगरेट मे सुट्टा लगाते रहे, मै था तो विवेक के साथ पर अपने को बिलकुल अकेला महसूश का रहा था विवेक को उसके घर छोड़ कर एक बार फिर तालाब के किनारे बैठा रहा जाने कब ये अकेलापन मुझे अच्छा लगने लगा,

रात भर ठीक से सो नही पाया सुबह चार बजे ही स्टेशन पुहुंच गया, उस दिन स्टेशन आम दिनों से ज्यादा ही साफ था कुछ यात्री प्लेटफॉर्म मे सो रहे थे जैसे वो स्टेशन सिर्फ सोने के लिए आए हों मानिकपुर स्टेशन मे बहुत से ऐसे ही रहते है जो सोने ही आते है स्टेशन मे वो अलग अलग तरह के काम करने वाले होते है कुछ ट्रेन मे समान बेचने वाले कुछ समान निकालने वाले कुछ सफाई वाले और इनकी सुरक्षा के लिए पुलिस थाना भी स्टेशन मे है , स्टेशन के होर्डिंग नए हो रहे थे अब मानिकपुर मे भी अँग्रेजी सीखने वाले आ गए थे ये अलग बात थी वो अपनी दुकान मानिकपुर मे खोल नही पाये पर होर्डिंग्स जरूर लटका गए थे, आज ट्रेन का इंतज़ार परेशान कर रहा था और एक वक़्त था जब मै सोचता था ट्रेन छूट जाये और एक दिन घर मे रुक जाऊँ, एक लंबे इंतज़ार के बाद दादर गोरखपुर एक्स्प्रेस प्लेटफॉर्म पर आ गयी मानिकपुर के कुछ उँगलियों मे गिनती भर कुली ट्रेन की तरफ दौड़े इन तमाम दौड़ते भागते लोगों के बीच मै भी अपने लिए खिड़की के पास वाली एक सीट ढूंढ ली, ट्रेन 

अब मुझे लेकर दौड़ रही थी शायद उसे भी इलाहाबाद का इंतज़ार था,
इलाहाबाद है ही ऐसा शहर की बस मोहब्बत हो ही जाती है, पुरबिया बोली अवध की तहज़ीब कुछ बुंदेलों की गर्मी सब तो था इलाहाबाद मे चौड़ी सड़के जिन्हे देख कर लगता था की आप लखनऊ मे है, पतली गलियाँ जो इलाहाबाद मे होते आपको बनारस का एहसास करा जाती थी सुबह धुंध भरी हल्की ठंढक के साथ दोपहर मे तपती धूप तो शाम अक्षत यवोना की तरह सामने होती थी, बस एक अनोखे मिज़ाज वाला शहर है इलाहाबाद , गाड़ी इलाहाबाद गऊघाट पुल मे आयी तो मै जैसे नींद से जागा और अपना बैग कंधे पर डाल कर गेट के पास खड़ा हो गया, स्टेशन मे मुझे कोई लेने नही आने वाला था न ही कभी कोई आया था पर इस बार शायद किसी को तलाश कर रहा था,
कमरे का दरवाजा खोल ही रहा था की शुभचिंतक उपाध्याय आ गए जन्मदिवस की बधाई देने लगे और बोले की बहुत बड़े वालों हो मे कल बताया भी नही और निकल लिए चलो आज खाना मेरे साथ ही खा लेना पर शाम को कुछ प्रोग्राम बना लेना बेटा सस्ते मे नही निपटोगे, की चेतावनी के साथ बड़े भइया गये।

शाम को कोचिंग के बाद चौराहे पर चाय पी रहा था सुबह से अब तक कई जगह कमरे की तलाश कर चुका था पर कुछ ठीक समझ नही आया था, तब तक इंदुमती भी आ गयी थी, कब आए हो घर से, इंदुमती ने पुछा सबेरे ही आ गया था भइया एक चाय और दे दो चाय पीते ही मैंने उसे बताया की आज कई जगह कमरे के लिए गया पर कुछ समझ नही आया कटरा मे तो मिल रहा था पर दूर बहुत है, हम समान बदलने के झंझट से बचने के लिए पास मे ही चाहते थे, इंदुमती बोली चलो कोई नही एक दो दिन मे देख लेना कहीं न कहीं मिल ही जाएगा पास रहेगा तो बेहतर ही है, चाय खत्म करके हम किताबों की दुकान मे खड़े थे, कमरे को ले कर बात हो ही रही थी तो मैंने दुकान वाले से पुछा गुरु कोई कमरा तो नही मिल जायेगा यहीं कहीं आस पास दो चाहिये एक ही जगह हम दोनों को चाहिये, दुकान वाला बोला मिल तो जायेगा पर चार पाँच दिन लगेंगे दुकान के ऊपर वाले ही है एक तो खाली है एक खाली होना है जिस दिन हो जाएगा आ जाइए मै आज किराए की बात कर लेता हूँ , आप कल आ जाये बात करा देता हूँ ,

हम वापस अपने लॉज आने लगे इंदुमती बोली रात का खाना बनाओगे या मै ले कर आ जाऊँ नही आज उपाध्याय के साथ खाना है , खाना क्या है उसे लेकर कहीं बाहर जाना है खाने, चलते चलते मैंने इंदुमती से कहा जब तक कमरा बदलते नही है तब तक इस बारे मे किसी से कोई बात ना करना मित्तल साब को तो बता ही दिया होगा, मै कल डॉ साब को बोल दूंगा, इंदुमती बोली तो मेरे साथ कब चलोगे, मै बोला कहाँ चलना है, अभी बर्थडे तो हमने मनाया ही नही और आज तो कुछ ठीक से बात भी नही हो पायी इंदुमती बोली, हो जाएगी वो भी हो जाएगी और मै क्या बताऊंगा राजकुमारी जो बोलेंगी वही होगा तो कल सुबह मिलना फिर बात करते है , अब चलता हूँ उपाध्याय बैठा होगा उसे लेकर जाना है
उपाध्याय रुद्राक्ष की माला और अपनी कुछ पत्थरो वाली अंगूठियाँ उतार कर तैयार थे, चलबों गुरु हाँ भाई चलने के लिए ही तो इंतजार कर रहे थे, मै बोला ई सब का है मे ई माला अंगूठी काहे उतार दिया, अब आज अंडा खाना है तो ई सब थोड़े पहिनेगे उपाध्याय बोला, तुमसे किसने कहा की अंडा खाना है मै तो नही खाता अंडे उपाध्याय ज़ोर से हँसा और कहा अब हमसे ई पंडिताई ना पेलो हम देखे है तुम्हें अंडे की दुकान मे कई बार ऊ मैडम के साथ अब हमहिन मिले है चूतिया बानवेन का , मै उपाध्याय को समझाता रहा की मै नही खाता वो राधा खाती है तो उसी के साथ दुकान मे देखा हो पर वो विश्वास करने के पक्ष मे था ही नही और वो कभी नही माना उसे हमेशा लगता था की मै चुरा कर अंडे खाता हूँ उपाध्याय की पसंद के हिसाब स उस दिन पीएचक्यू के पास एक ढाबे मे खाना खाया उपाध्याय वहाँ भी नाराज़ हुआ जब मै अंडा की जगह अपने लिए कोफ़्ता मंगा लिया खाने के बाद उपाध्याय जी ने प्रेमचंद की निर्मला उपहार मे दी निर्मला मुझे प्रेमचंद की रचनाओ मे सबसे ज्यादा पसंद थी

वापस आ कर कॉफी हाउस मे कॉफी और सिगरेट सुलगाई उपाध्याय थोड़ा गंभीरता के साथ वो लड़की भाई आपके कमरे मे आती है शायद डॉ साब और आंटी जी को ठीक नही लगता मुझसे कहा है की मै आपसे बात कर लूँ और लॉज मे कोई लड़की ना आए ये ध्यान रखे, मैंने कहा परेशान ना हो भाई कल मै बात कर लूँगा डॉ साब से और हो सकेगा तो रूम भी बदल लूँगा फिर हम अपने लॉज चले आए

अगली सुबह इंदुमती लॉज मे फिर आ गयी अब मै उसे मना भी नही कर सकता था, वो आते ही सिर हिला कर पुछा कैसे हो और आंखो और हांथ से इशारा करते हुये चाय के लिए पुछा तो नहीं मे सिर हिला दिया वो बिना कुछ बोले ही चाय का पानी गैस मे रख कर मिल्क पाउडर मिलाने लगी कुछ गुनगुना नही रही थी जब चाय ले आयी तो चाय पीते हुये मैंने पुछा - "तो राजकुमारी कहाँ चलना है कुछ सोचा नही इस बार तुम बताओगे बर्थड़े तुम्हारा था, मै चाय का कप मेज मे रखते हुये बोला मै तो चाहता हूँ की तुम यही रहो और ऐसे ही दिन भर चाय पीते है, इंदुमती ने मेरा सर अपनी गोद मे रख लिया और माथे को चूम कर बोली तो ठीक है खाना भी यहीं बना लूँगी पर कोचिंग तो जाना है ना, अरे राजकुमारी कोई नही फिर कभी अभी रूम तो बदल ले फिर तो रोज तुम्ही को बनाना है , इंदुमती ने मुझे उठा कर बैठा दिया और बोली तो ये बात है मै नही बनाने वाली रोज का खाना हाँ चाय मिल सकती है वो भी कभी कभी चलो ठीक है अभी तो बना लो, वो बोली हाँ वो किताब के दुकान वाले भइया मिले थे तो बोले है की तुम बात कर लो और कल से आ सकते है आप लोग आज वो दूसरा वाला रूम भी खाली हो जाएगा

सोमवार, 6 अक्टूबर 2014

                                                                        हैप्पी बर्थडे 

                                               इंदुमती  का आठवां पन्ना 


इंदुमती को घर के पास छोड़ा मित्तल साब अखबार वाले के पास खड़े कुछ बातें कर रहे थे मेरी मित्तल साब से कोई मुलाक़ात नही थी फिर भी मैंने औपचारिकता बस मित्तल साब से नमस्कार कर लिया और उनका जवाब भी ऐसा ही था जैसे वो अभिवादन का जवाब देना नही चाहते हों पर फिर भी ये दूसरी बार मै उन्हे नमस्कार ठोक रहा था इंदुमती सीधे गेट के अंदर चली गयी , इस बार पलटकर कुछ कहा नही और मै भी अपने लाज चला गया, अब दीपक भाई की थ्रीजी वापस करने जाना था, पहले लगा की नहा कर सो जाता हूँ, फिर मन मे आया की अभी वक़्त मे दे आता हूँ नही फिर दुबारा नही मिलेगी, तो बाघंबरी जाना ही ठीक था, सोमवार का दिन था, गुनगुन, सगुन को डॉ साब स्कूल छोडने के लिए बस का इंतज़ार कर रहे थे, सप्ताह का पहला दिन इतवार होता है पर जब कि हमे पाँचवी तक ये बात समझ नही आई , संडे मंडे पहली दूसरी मे ही सीख गए थे, हम हमेशा सोमवार को ही सप्ताह का पहला दिन मानते रहे इतवार की छुट्टी के बाद सोमवार को स्कूल जाना बिलकुल पसंद नही था, हाँ स्कूल पहुँचने के बाद ये नापसंदी हमेशा भूल जाती, स्कूली दोस्तो मे मस्त हो जाते, लंचबॉक्स लंचटाइम की मस्ती सब कुछ ऐसा था की याद आ जाये तो तमाम बड़ी बड़ी बातें बेकार लगती है, वक़्त है ही ऐसा जो हमेशा गुज़र जाने के बाद वापस नही आता।

बाघंबरी से दीपक भाई को हीरोपुक वापस करके अपनी साइकिल से वापस अल्लापुर दीपक भाई रोक रहे थे बोले भी की चलो कचौड़ी खाते है, दीपक भाई के पास जाना हो और बिना कुछ खाये पिये वापस आना ये भी एक उपलब्धि ही थी कुछ लोग इस बात पर गंभीरता से ध्यान रखते है की उनके पास आने वाला बिना कुछ खाये ना जाये , ये वही लोग है जो हम जैसे काहिलों को गालियां देते रहते है, इनकी चर्चा भी अक्सर इसी के आस पास घूमती रहती थी उसके यहाँ गए तो उसने ये खिलाया उसने वो नही खिलाया इलाहाबाद मे तमाम ऐसे लड़के थे खाने पीने को लेकर बहुत गम्भीर रहते थे कल खाने मे क्या बनाना है ये भी उनकी चिंता का विषय होता था, और मै खाना बनाने से बचने के लिए ऐसी मित्रता से बचने की कोशिश कभी नही करता था,

वापस लाज पहुँच कर सो गया पर उपाध्याय जैसे पड़ोसी के होते हुये ऐसा हो ये संभव भी नही था कुछ देर बाद उपाध्याय जी आ ही गए और मुझे इस तरह हिलाया की जैसे शहर मे आग लगी हो "उठो मे पूरी रात गायब रहो और दिन भर सोना ई सब का है मे इहाँ रात रात भर घूमय आए हो की पढ़य" मै उपाध्याय की चेरौरी करते हुये कहा भइया अभी सोने दो कुछ देर मे सब बताता हूँ, तुम का बताओगे हम सुबह तुम्हें मटियारारोड से आते देखा है । अब ई बताओ की इत्ते सबेरे कहाँ से आए गुरु वो भी उसके साथ,,,, हाँ भाई कुछ काम था सब समझ रहे है गुरु आज कल बहुत जरूरी जरूरी काम कर रहे हो उ भी पूरी पूरी रात इतना कह कर उपाध्याय कुटिलता के साथ मुस्कुराया , उपाध्याय की बाते मुझे कुछ अच्छी नही लगी तो मै थोड़ा सख्त होते हुये कहा उपाध्याय जी वो मेरी बहुत अच्छी दोस्त है और मै उसका सम्मान करता हूँ कोई भी बात या राय बनाने से पहले ये बात ध्यान मे रखिएगा, उपाध्याय अरे भाई जी आप भी हमे पता नही है क्या पर उयाध्याय की बाते और उसकी मुस्कुराहट मुझे परेशान कर रही थी उस कोचिंग के बाद शिवकुटी चला गया आशीष के कमरे मे मन मे काफी कुछ था जो परेशान कर रहा था जिसे मै ठीक से समझ नही सकता था कई बार जब मै परेशान होता था तो लगभग अंधेरा होने के बाद गंगा के किनारे चला जाता था उस दिन भी यही सोच रहा था की आशीष को साथ लेकर गंगा किनारे बैठूँगा
आशीष के कमरे मे ताला बंद था मेरी निराशा बढ़ती जा रही थी जैसे रक्तसंचार कम हो रहा हो एक तरफ लग रहा हो जैसे मै किसी बड़े गुनाह से छिपने के लिए भाग रहा हूँ, आशीष जब भी कहीं बाहर जाता हो चाभी बाहर लगे मनीप्लांट के गमले के नीचे रखी होती थी, पर जब इलाहाबाद से बाहर होता तो चाभी साथ ही ले जाता उस दिन मुझे वहाँ चाभी मिल गयी, शाम लगभग सात बजे तक कमरे मे ही आशीष का इंतज़ार करता रहा फिर एक नोट लिख कर चाभी मनीप्लांट को देकर चाय पीने के लिए निकल गया, रात मे बहुत देर तक गंगा किनारे बैठा रहा हल्की बारिश होने लगी थी वापस आने पर भी कमरे मे ताला लगा हुआ था, मनीप्लांट से चाभी लेकर जब कमरे मे गया तो नोट ठीक वैसा ही रखा था जैसा मै छोड़ कर गया था, कुछ समझ नही आ रहा था की अब कहाँ जाऊँ रात काफी हो चुकी थी कुछ देर किताबें पलटता रहा फिर वही सो गया उस रात मै ठीक से सो नही पाया तीन बार नींद मे उठा पहली बार जब किसी ने मेज मे रखा हुआ चाय का गिलास गिरा दिया शायद चूहा या और कुछ वैसा ही रहा होगा उसके बाद बहुत देर तक लाइट जला कर ये जानने की कोशिश करता रहा की गिलास जो मेज के बीच मे रखा था नीचे कैसे गिरा, एक बार फिर सोने की कोशिश कर रहा था तो चमक के साथ बादल इतनी ज़ोर से गरजे जैसे बिजली आँगन मे ही गिरी हो बारिश की तेज आवाज कमरे से साफ सुनी जा सकती थी तीसरी बार वही सुबह के चार बजे रहे होंगे नींद खुली मै पसीने से भीगा हुआ था ऐसा लग रहा था जैसे कोई सीने मे बैठ कर गला दबा रहा हो इस बार डर अपने चरम पर पहुँच गया था, फिर सो नही सका एक उमस भरी सुबह का इंतज़ार था कुछ देर बिस्तर मे ही बैठा रहा सर फट रहा था कमरे का अंधेरा डरा देने वाला लग रहा था बारिस बंद थी कमरे के बाहर नल से पानी टपकने की आवाज साफ सुनी जा सकती थी, एक नोट लिख कर मेज मे छोड़ कर चाभी मनीप्लांट को वापस दे कर निकाल आया , सुबह की चाय के लिए प्रयाग स्टेशन मे रुक गया तब तक कहीं कोई और दुकान खुली भी नही थी, मै अपने को एक दम निरुद्देश पा रहा था कुछ समझ नही आता क्या करना या क्या करना चाहता हूँ, कुछ था मन मे जिसे नकारने के लिए बस भाग रहा था, अपने आप से झूँठ बोलना आसान नही है पहली बार ऐसा लग रहा था,

अब मै चाय के लिए भी बाहर नही जाता सुबह जार्जटाउन चितरंजन के घर जाता वही पढ़ता फिर वही से कोचिंग और शाम को रूम मे ही चाय बना लेता ये सिलसिला तीन चार दिन चला उपाध्याय ने बताया की इंदुमती आई थी पूछने तो उसने बता दिया है की कुछ नोट्स बनाने है तो वहीं चितरंजन के पास जा रहे है आज कल,

अगस्त की आख़री तारीख़ गुरुवार को थी नीचे वाली आँटी जी ब्रहस्पतिदेव की पूजा कर रही थी जब इंदुमती पहली बार मेरे रूम मे आयी थी मेज खुली हुयी किताब चाय का गिलास मेज मे लुढ़क गया था नीचे बची चाय पेपर मे फैल कर सूख चुकी थी जिसमे चींटियाँ चल रही थी तौलिया दरवाजे मे स्वागत के लिए पड़ा था जूते स्टूल मे रखे हुये थे नीचे रख कर वो बैठी थी जिस तरह वो रूम मे मेरे सामने थी, मै कुछ बोल नही पा रहा था , ऐसा लगा जैसे इंटरव्यू दसवें नम्बर मे हो और नाम सबसे पहले बुला लिया हो, बिना तैयारी के एक्जाम तो देना ही था , मै लाचारी से अपनी हर चीज को देख रहा था जो बेतरीबी से फैली हुयी है, इन सब के बीच एक चीज एक परफेक्ट नज़र आ रही थी वो थी मेरी साहित्यिक किताबों की आलमारी, काफी देर दो जोड़ा खामोश आंखे कमरे मे कुछ तलाश करती रही बस वो एक दूसरे मिल नही रही थी, चाय पियोगी बोलते हुये खामोशी तोड़ते हुये बोला, इंदुमती बिना कुछ बोले ही सहमती जताई, नोट्स तैयार हो गये इंदुमती बोली, हाँ यार हो ही गये , बता कर भी तो जा सकते हो ना तुम्हें नही पता इधर कितना परेशान थी मै और तुम हर बार की तरह भाग गये इस बार भी इंदुमती और कुछ बोलती मैने पुंछा चाय मे कॉफी डाल दूँ मै ऐसे ही पीता हूँ, चाय खत्म हो गयी बहुत सी बाते जो मेरे जाने के बाद हुयी इंदुमती बताती रही और शायद कुछ बातें और भी थी जो वो बताना चाहती थी पर बताया नही, अब यह तय था की हम दोनों एक ही लॉज मे रहेंगे या कोई एसा मकान तलाश करना था जहाँ हम दोनों को रूम मिल सके, जितना उसने बताया था , उस हिसाब से इन सब की वजह मित्तल साब ही थे


मुझे घर आना था दो सितंबर को मेरा बर्थड़े था, इंदुमती चाहती थी की दो की शाम हम कहीं चले, बाद मे वो इस बात को लेकर मान गयी की मै दो को दोपहर की ट्रेन से मानिकपुर निकलूँगा और वापस आ कर कहीं घुमाने ले चलूँगा, इंदुमती की बातों मे अब कुछ अधिकारबोध लगता था जैसे वो कुछ बोले और उस बात को मानना मेरा नैतिक कर्तव्य हो, कमरे की तलाश के लिए मानिकपुर से वापस आने के बाद के लिए कहा, तब तक इंदुमती ने पराठे भी बना लिए थे, अब मुझे भी लग रहा था की हम पास होंगे तो खाने वाली समस्या भी कुछ कम ही रहेगी , खाने के बाद इंदुमती मेरी चीजों को ठीक करने की कोशिस करती रही कोचिंग का वक़्त हो गया था हम दोनों अपनी अपनी कोचिंग चले गये,
दो सितंबर 2000 की सुबह सात बजे ही इंदुमती मेरे रूम एक प्रिंटेड झोले के साथ आ गयी थी जिसमे काँच के टुकड़े जैसे सितारे लगे थे, तब तक मै भगवान को धुवे के साथ छोड़ कर बैठा पेपर पलट रहा था , अचानक से उसने मुझे हॅप्पी बर्थड़े बोलते हुये अपनी तरफ खींचा उसके नरम चेहरे को मै अपने गले के पास महशुस कर रहा था, उसने गहरे नीले रंग की खड़ी कालर वाली कमीज़ के साथ आसमानी रंग की जींस पहन रखी थी, हाँथ में कुछ पत्थरो की माला जैसी ब्रेसलेट डाली थी, ये ब्रेसलेट होटल रॉयल के बाहर लगी दुकान से मैंने ही ख़रीदा था, इंदुमती ने इसे ले तो लिया था, पर मै जनता था की वो उसे बहुत पसंद नही था, फिर भी वो उसके हाँथ में काफी अच्छा लग रहा था, उसके ब्रेसलेट को मै कंधे के पास महसूस कर सकता था, उससे "थैंक यू " बोलना चाहता पर होंठ बस कापते रहे शब्द गले से बाहर आये ही नही, और वो धीरे से मेरे कान मे कुछ फुसफुसा गयी ये सब इतना अचानक था की वो कान मे क्या बोली मै समझ नही पाया या जो समझा था उसे लेकर बात करने की हिम्मत नही हुयी, इंदुमती चाय बनाने लगी चाय रख कर वो झोले से समोसे और अमृत स्वीट हाउस की मिठाई वाला डिब्बा निकालते हुये बोली पनीर की सब्जी भी बना लाई हूँ रोटियाँ यही बना लेंगे, ट्रेन कितने बजे की है, दो बजे महानगरी से जाना है, मै बोला तो ठीक है ना मै भी चलूँगी साथ मे छोड़ने , मैंने कहा और कोचिंग कौन जाएगा , आज नही जाना यार आज तक एक भी दिन का गैप नही किया तो एक दिन चल ही जायगा,
हम स्टेशन मे थे ट्रेन आ चुकी थी इंजन आगे पीछे बदला जा रहा था, ये वही प्लेटफॉर्म था जिसे छोड़ कर हर बार जाता था पर इस बार कुछ अलग था बस इलाहाबाद से आने का मन नही हो रहा था, ट्रेन धीरे धीरे स्टेशन छोड़ रही थी बहुत दिनों बाद कोई इस तरह या पहली बार स्टेशन छोडने आया था.................
क्रमशः.............

शुक्रवार, 19 सितंबर 2014

                                                                      रात रजनी की विदाई 

                                                   इंदुमती  का सातवां पन्ना 


इंदुमती को छोड़ कर आगे को बढ्ने ही वाला था की इंदुमती बोली " कस मे कैसी गुड नाइट" उसके उन शब्दों मे जितनी ठंढक थी उससे कहीं ज्यादा ठंढा उसका चेहरा था एक दम बर्फ सा जमा हुआ बिना किसी भाव के जैसे भावनाओ की आंच मे पिघलना चाहता हो और उस बर्फ के ठंडे टुकड़े को कोई उत्तर के किसी ठंडे मैदान मे कोई छोड़कर जा रहा हो, पर मेरा मन कह रहा था की मै इस टुकड़े को उठा लूँ और मैंने वही किया मै चाह कर भी आगे नही जा सकता था, दिन भर की उमस के बाद जैसे संगम से ठंडे हवाओं के झोंके अल्लपुर को ठंडक दे रहे थे, मै वापस इंदुमती के करीब आ कर खड़ा हो गया पर कुछ बोला नही शायद बोलने के लिए कुछ था नही और अब मै उसे जाने के लिए कह नही सकता था, हवा के झोंके हर बार आ कर हम दोनों से कुछ कहते पर हम दोनों मे से कोई उस चुप्पी को तोड़ना नही चाहता था, मै तो उस खामोशी को हमेशा के लिए अपने पास समेट कर अपने पास रखना चाहता था, कुछ कहने के लिए इंदुमती की तरफ देखता और मुह खुलता भी तो शब्द गायब ही हो जाते इंदुमती अपने हांथ की सबसे छोटी उंगली पर पहनी हुई मोती की अंगूठी को घुमा रही थी, जैसे कोई अपराध बोध हो उसके मन मे मुझे रोकने को लेकर, या शायद कुछ कहना चाहती थी, मैंने फिर एक बार कुछ कहने की कोशिश की और जैसे ही मै बोला इंदुमती ठीक उसी के साथ ही उसने भी कुछ कहने की शुरआत की अमित,,,, मै बोला हुम्म बोलिए वो बोली तुम क्या कह रहे थे मैंने कहा मेरी छोड़ो राजकुमारी तुम बोलो, मै ये कह रही थी कि कहीं चाय नही मिलेगी क्या अब अगर एक एक चाय हो जाय तो फिर वापस घर। पर अभी चाय के लिए कहाँ जाना पड़ेगा इंदुमती बोली , प्रयाग सिविल लाइंस जंक्शन जहां बोलो वही चलते है , इंदुमती ने जंक्शन के लिए कहा तो मै बोला चलो तुम चलाओगी , तो वो बोली नही नही तुम ही चलाओ सिविल लाइंस से निरंजन के पास से निकल चलेंगे,

अब अपनी हीरोपुक सिविल लाइंस की तरफ चल दी सिविल लाइंस के कुछ ढाबे जो सड़क के किनारे बने हुये थे वहाँ ढाबे के छोटू बर्तन साफ कर रहे थे, उनके श्रम के संगीत को साफ सुना जा सकता था, ऐसे ही सैकड़ों छोटुओं का श्रम ही तो था जो सिविल लाइंस की शाम मे जान डालता है , मार्क्स भी कुछ श्रम या श्रम शक्ति जैसी ही बात किया करते थे हाँ उनकी बातों मे एक चीज और थी श्रम मूल्य शायद वो यहाँ नही था श्रम तो था पर श्रम मूल्य नही ये इलाहाबाद ही नही छोटुओं के श्रम का मूल्य कहीं नही होता वैसे मार्क्स गंभीर विषय है हम जैसों के बस की बात नही,इन छोटे तारों की चमक ज्यादा थी या आसमान मे टिमटिमाते तारों की ये सवाल मन को परेशान कर रहा था तो जब आसमान की तरफ देखा तो बस इतना याद आया की " तुम ही रात को दिन मे बदलते हो और दिन को रात मे, और तुम्ही मौत से ज़िंदगी को लाते हो और ज़िंदगी को मौत से और बिना सामर्थ्य वालों पर खुश हो जाने पर तुम्ही खुद सहारा देते हो" हे ईश्वर रहम कर इन बच्चों पर क्या यही तेरा रूप है । हम छोटुओं को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ गए और निरंजन सिनेमा होते हुये जानसनगंज से जंक्शन पहुँच गए।

छोटुवों का श्रम अभी भी मेरे कान मे चिल्ला चिल्ला कर जैसे कह रहा था की हम अपने श्रम के मूल्य मे ही जीवन बिता रहे है तब तक मेरे जीवन मे श्रम मूल्य किताबी बात ही थी इसके अनुभव को मै पूरी तरह समझ नही सका था।हम जंक्शन के पास होटल गुलाब मेंसन के बाहर सड़क की एक चाय की दुकान मे थे, इंदुमती चाय के लिए बोलने लगी दो चाय अलग से बनाना भईया थोड़ा कम शक्कर की, उस दुकान मे भी अधिकतम श्रम बच्चों का ही दिख रहा था एक बुजुर्गान एक नौजवान और पाँच छोटे बच्चे दुकान को अपने श्रम की ऊर्जा दे रहे थे, इंदुमती बोली क्या बात है इतना सन्नाटा काहे खींचे हो, कुछ नही बस यूं ही और पहली बार मार्क्स को लेकर मन मे जिज्ञासा बढ़ रही थी, इंदुमती की चाय आ गयी थी चाय अच्छी थी शायद रात के इस श्रम का परिणाम अच्छा लग रहा हो ऐसा मुझे लगा हो भी सकता है था या नही भी, इंदुमती खुश थी बार बार ऐसे बांहे फैला रही थी जैसे खुले आसमान मे उड़ना चाहती हो वो कह रही थी इस तरह आज़ादी से घूमना कितना अच्छा लगता है ना। सच मे शुक्रिया दोस्त इस चाय के लिये, मज़ा आ गया यार घड़ी देखो टाइम कितना हो रहा है , ढाई बज गया राजकुमारी अब आगे का, वो बोली अभी कुछ देर यहीं घूमते है ना फिर बाद मे चलेंगे आज घर जाने का मन नही है ।

मै इंदुमती को स्टेशन के अंदर ले गया दो प्लेटफॉर्म टिकट ली और बोला चलो राजकुमारी कुछ नया देखो तमाम चीजो को आज दूसरे नज़रिये से देख पाओगी क्यूकी ना आज कहीं जाना है ना किसी का इंतजार है, स्टेशन का व्हीलर बुक शॉप जिसमे वो लोग हमेशा भीड़ लगाते है जिन्हें किताबें लेनी ही नही है लेने वाले को पता होता है क्या लेना है वो लेकर आगे निकलता है पर जिसे वक़्त गुजरना है, बेवजह बकैती करता रहता है, कितने लोग है जो रोटी के लिये महाराष्ट्र और गुजरात दिल्ली जाने वाली गाड़ियों की जनरल बोगियों मे भूसे सा लदा हुआ जाते है । ये श्रम है जो अपना घर छोड़ कहीं और भाग रहा है और ये वही श्रम है जिससे गुजरात महाराष्ट्र दिल्ली की चमक है । पर वहाँ किसी को पता नही होगा की जो टाई बांध के वो अपने कंपनी की कामयाबी की कहानी सुनाते है उसे बनाने बाली ऊर्जा रेलवे के टायलेट मे बंद होकर पूर्बी उत्तरप्रदेश से आई है । वही कामयाबी की हकदार है। वहीं एक बूढ़े चचा प्लेटफॉर्म पर बैठे थे और ट्रेन आने पर उसके पास तक जाने के लिये लाचार थे उन्हे मैंने इंदुमती के साथ सहारा दिया उनका टिकट एसी प्रथमश्रेणी का था बेटा स्टेशन छोड़ कर चला गया था चचा बता रहे थे की एसी की टिकट थी तो बेटा बोला की आप चले जाना उसमे कहाँ भीड़ होगी, पर मै ये नही कह पाया की ट्रेन मे कैस बैठूँगा, अरे चचा छोड़ो भी मै आपको ट्रेन मे बैठाने ही तो आया था मै बोला, चचा को उनकी बर्थ मे बैठा कर हम ट्रेन से नीचे उतर रहे थे तो चचा बोले बेटा अपना नाम तो बताते जाओ और मेरा नम्बर ले लो कभी कोई काम हो तो बता देना, चचा का बेटा पुलिस मे ओहदेदार अफसर था, मैंने कहा अब रहने भी दीजिये चचा फिर नम्बर लिख ही लिया लगा की चचा को भी लगेगा की नम्बर लिखा कर उन्होने अपना ऋण चुकता कर दिया जो उस वक़्त उनकी आंखो मे साफ देखा जा सकता था । हम ट्रेन चलने तक वही प्लेटफॉर्म पर ही रहे और और फिर उन तमाम आते जाते लोगों की भागमभाग से बाहर निकाल आए,

अब हमे वापस अल्लापुर जाना था, इस बार इंदुमती हीरोपुक चला रही थी, मै सोच रहा था की कितना पैसा कितना समर्थवान आज उ चचा के पास पैसे भी थे प्रथमश्रेणी का टिकट था पर प्लेटफॉर्म से उठ कर ट्रेन मे चढ़ने का समर्थ नही था जो कुली उनके पास था वो भी ज्यादा पैसे की लालच मे उन्हे छोड़ गया था, ये पैसा फिर और ज्यादा पैसा क्या है इसका मतलब उस वक़्त एक पुरानी घटना याद आ रही थी "कहीं बाढ आई थी एक सेठ जो सोने के बहुत से गहने पहने था और ब्रेड बैंचने वाला और कुछ बच्चे बाढ मे फसे थे सभी को ज़ोरों की भूंख लगी थी सेठ ब्रेड वाले को अपने सोने के गहने दे कर ब्रेड लेना चाहता था तो ब्रेड वाले ने ये कह कर मना कर दिया की जब तक बच्चे नही खा लेते तब तक मै आपको ये ब्रेड नही दे सकता'' कई बार आपका पैसा भी आपके काम नही आता, मन काफी भारी हो रहा था, इंदुमती जब आलोपी मन्दिर के आगे जाने लगी तो मैंने कहा की कहाँ जा रहे है हम अभी भी घर नही चलना क्या, वो बोली बस बँधवा तक चलते है फिर थोड़ी देर रुक कर आ जाएंगे ।

बँधवा मे पहुँच कर हनुमान मन्दिर के थोड़ा पीछे ही किसी पंडा जी की बेंच पड़ी थी उसी मे बैठ गए गंगा, यमुना दोनों बाढ़ मे थी संगम का पानी एक ठहरी हुई झील की तरह लग रहा था, इंदुमती कह रही थी की जंक्शन से अच्छा यही आ गए होते कितनी शांति है यहाँ, अंधेरा धीर धीर कम हो रहा था मॉर्निंगवॉक वाले भी अपनी छड़ी के साथ दिखने लगे थे पूरब का आसमान गुलाबी हो रहा था यही उषा की लाली होगी, रात के सप्तर्षि के चक्र को तो अक्सर देखता था पर उषा की लाली एक लंबे समय के बाद मिल रही थी, रात रजनी की विदाई के साथ उषा की लाली के स्वागत मे इलाहब्बाद गंगा यमुना के साथ खड़ा था, उषा की लाली मे भी अपना एक अलग नशा है या यूं भी हो सकता है नशेड़ी हर जगह अपना नशा ढूंढ ही लेता है।
उषा की लाली तपन मे लाल हो इससे पहले हम घर जाते पूरी रात घूमने के बाद भी लग रहा था की अभी अंधेरा कुछ देर और रहता तो बेहतर था, इंदुमती कह रही थी कितना अजीब है ना जहां आज पानी भरा है वहाँ कुछ दिनों बाद एक नया शहर बनेगा जो सबसे अलग होता है। मैंने कहा राजकुमारी अब चलें नही कहीं ऐसा ना किसी उस शहर के बसते बसते हम उजड़ जाये, अब घर चले इंदुमती बिना कुछ बोले हीरोपुक की चाभी पकड़ा दी और हम घर के लिए चल दिये.........
क्रमशः..................

रविवार, 14 सितंबर 2014

                                                                       नॉन वेज ढाबा

                                                                 इंदुमती का छठा पन्ना 


हम सिनेमा मे जब पहुंचे तो हाल मे अंधेरा हो गया था, टार्च वाले भईया ने हमे हमारी सीट तक पहुंचाया राजकरन मे उसी समय कुछ परिवर्तन भी हुये थे । कुर्सियाँ पहले से कुछ नरम हो गयी थी आगे पीछे खिसक भी रही थी इलाहाबाद मे ये सब उपलब्धियों की तरह ही देखा जा सकता था, अब अपने को तो उ सिनेमा मे कोई इन्टरेस्ट था नही तो बस कुर्सी आगे पीछे खिसकाय रहे थे, तभी इंदुमती बोली ये कर रहे हो, तो फिर चुपचाप सीधा बैठा रहा पर मज़ा नही आ रहा था, मेरे साथ कई बार ऐसा होता था की जो फिल्म देखने का मन ना हो और कोई दोस्त ले जाय तो तो अक्सर पहले शो मे ही जाते थे और आराम से पैर फैला कर सोते थे सुबह दस से एक बजे की बिजली कटौती तो तब से आज तक चली आ रही है, फिल्म समाप्त होने के बाद सब चलने लगते तो मुझे भी उठाते और गरियाते हुये ले जाते की जब देखना नही था तो कहे पैसे खराब करने आ गए, ये फिल्म भी कुछ वैसी ही थी आगे क्या होगा ये पहले ही पता था। कहानी ऐसी थी की तीन घंटे बांध ही नही पायी, हाँ एक गीत उस समय सामयिक लगा था " उसे हसना भी होगा उसे भी रोना भी होगा हर दिल जो प्यार करेगा" पर ये उस वक़्त की अपनी एक स्थिति थी फिल्म मे एक गीत था " ऐसा पहली बार हुआ है सतरा अठरा सालों मे" तो इसी गीत के बीच मे ही मै इंदुमती से बोला मै भी अठरा का ही हूँ इंदुमती, चुप रहो मै बीस की हूँ चुपचाप फिल्म देखो इंदुमती बोली, मै बार बार बात करने की कोशिश करता और इंदुमती चुप करा देती, अब तो इंटरवेल का इंतज़ार था और वो इंतज़ार भी खत्म हुआ हाल की लाइट जल गयी कोल्ड ड्रिंक्स, समोसे वालों का आतंक चलने लगा था, जब जेब मे उधर के पैसे हों तो ये सब एक आतंक की तरह ही लगता है , इस आतंक से भी जूझते हुये कोकाकोला और चिप्स का बड़ा पैक ले लिया, कुछ फिल्मों के ट्रेलर के बाद फिल्म फिर शुरू हो गयी तब तक मै भी फिल्म मे कुछ ध्यान देने लगा था परिवार के समागम के साथ फिल्म समाप्त हुई जैसे तमाम भारतीय फिल्मों मे होता है, हाल मे रोशनी हो गयी थी लोग कुर्सियों को अकेला छोड़ कर जा रहे थे पर जैसे उनका अपना बहुत कुछ उसी सिनेमा हाल मे छूट गया हो, सबके साथ होता है शायद आपके साथ भी हुआ हो, जब तक की वो हाल की घुटन से बाहर खुले आसमान के नीचे नही आ जाता। इन्दुमती ने रुकने को कहा बोली की पहले लोगों को निकलने दो फिर चलते है ,
हम हाल के बाहर आकर सुभाष चौराहे पर खड़े थे अब खाना खाने कहाँ चलना है ,मै यही सोच रहा था तभी इन्दुमती बोली कहाँ चल रहे हो , मै बोला अब राजकुमारी बताये कहाँ चलना है , आज नॉन वेज खाने का मन है कही मस्त चिकन मिल जाए पर अब तुम बोलोगे की इन्दुमती मै चिकन नही खाता, मै कुछ बोला नही शायद कुछ सवाल अपने आप से कर रहा था, फिर बोला चलो कहाँ मिलेगा चिकन पता है वहीं चलते है , इन्दुमती बोली तुम भी कहते हो, मै बोला जब अंडे नही खाता तो चिकन कैसे पर वहां कुछ वेज होगा मै वही खा लूंगा मै खाता नही हूँ पर सामने बैठ कर कोई खाए इसमें एतराज़ भी नहीं है। हम सेन्ट्रल बैंक के सामने एक ढाबे मे सड़क किनारे खाने के लिए पहुँच गए।

मै नॉन वेज ढाबे में चला तो गया था पर मेरे मन में तमाम सवाल अब भी थे, इन्दुमती जो खाना चाह रही थी उसका इन्कार मेरे लिए किसी गुनाह से कम नही था और मै पहले कभी ऐसे किसी के साथ खाने के लिए बैठा नही था सरयूपारी गर्ग गोत्र का ब्राह्मण और मांसाहारी भोजनालय में मेरे बाबा जी को पता चलता तो शायद घर परिवार से बेदखल कर देते, फिर सोचता की ये तो प्रकृति का ही खेल है मनुष्य मांसाहार के लिए भी बना है, हमारे यहाँ पुरानी मस्जिद के पास मुल्ला फैजुल्ला रहते थे वो कहा करते थे की मनुष्य के दांतों में कैनाइन (जो कुत्तों में भी होता है) होता है, जो मांसाहार के लिए ही है , तभी तो हम मांसाहारी है, गाय कभी मांस नही खाती ना तो उसके पास वो दांत है ना हो वो मांस खा पाएगी, तो जिसे प्रकृति ने खाने के लिए बनाया तो अगर वो उसका प्रयोग करे तो क्या बुराई है। इसी सब उधेड़ बुन मे लगा था तभी इन्दुमती बोली की कुछ खाने के लिए बोलूं की कही और चले कुछ परेशानी , नही नही मै शाही पनीर रोटी लूंगा तब भी मन में था की अगर मटर पनीर बोलू तो कही नॉन वेज वाली तरी ना डाल दें, इन्दुमती ने ढाबे वाले को खाने का मीनू बता दिया अब हम खाने का इंतज़ार कर रहे थे, इन्दुमती बोली की कुछ पढ़ते भी हो की बस अमृता प्रीतम की पूजा में लगे रहते हो, सीपीएमटी इत्ता आसान नही है, इन्दुमती मुझसे दो साल सीनियर थी और एक बार सीपीएमटी की परीक्षा दे चुकी थी, मैंने कहा कर लेता हूँ, वैसे मेरा डाक्टर वाक़्टर बनने का कोई इरादा नही है, तो का बनना है कुछ तो करना है की नै इंदुमती बोली मै चुप ही रहा शायद मेरे पास कोई जवाब था नही या जो जवाब था वो मै बोलना नही चाहता था,

ढाबे वाले ने खाना लगा दिया एक ही मेज़ पर एक तरफ पनीर और दूसरी तरफ चिकन मैंने अपनी रोटी मक्खन के साथ लाने के लिए बोल दिया और इंदुमती की सादी तंदूर रोटी और खाने लगे इंदुमती चिकन के एक टुकड़े को उठा कर शायद दाँतो से छील रही थी पर मै बाद मे समझा की वो लेग पीस खा रही है ये बाद मे इंदुमती ने ही बताया था तब तक चिकन को लेकर मेरा ज्ञान शून्य था, इंदुमती ने लेग पीस को छीलते हुये जिसे वो खा रही थी बोली की पंडित जी तो हम अब अच्छे दोस्त है ना अब ये नही की तुम कल फिर गायब हो जाओ, मै बिना कुछ बोले खाने पे ही ध्यान दे रहा था खाना खाने के बाद ढाबे वाला पैसे की पर्ची लेकर आया तो मै पैसे देने लगा तो इंदुमती बोली रुको मै देती हूँ ना अब ये पाप तो ना कराओ की पंडित जी से चिकन के पैसे दिलवाए जाएँ , मै दे रही हूँ प्लीज तुम रहने दो यार फिर कभी तुम्हारी मर्जी से भी ,
खाना खा कर अब घर चलना था रात के लगभग साढ़े दस का वक़्त रहा होगा, मै बोला एक सिगरेट हो जाती तो मस्त रहता ना, हुम्म ले लो मुझे तो लेनी नही है पर सिगरेट कोई अच्छी बात नही है वो भी इस उम्र मे इंदुमती बोली, अच्छा दोहरा खा लें ठीक है जो लेना हो लो और अब चलो यहाँ से मै पान वाले के पास जा कर सिगरेट जला ही ली और और वही फूंकने लगा सिगरेट पीते ही कुछ इधर उधर की बाते होती रही तभी इंदुमती ने बताया था की उसके पापा आर्मी के रिटायर्ड अफसर है और माँ गृहणी । वो अकेली है कोई दूसरा भाई बहन नही है, मै सिगरेट फेंक कर हीरोपुक स्टार्ट करने लगा तो इंदुमती बोली पीछे खिसको जी मै चलाती हूँ।

इंदुमती के साथ वहाँ से चला ,इंदुमती कुछ बोल रही थी और मै कोई जवाब नही दे रहा था, बस यूँ ही अंदर तरह तरह के विचार उमड़ रहे थे। इंदुमती फिर कुछ बोली और सीएमपी के सामने वाले डाट पुल से हीरोपुक को बैरहना की तरफ मोड लिया तब मै इंदुमती के कंधे मे हांथ रख कर चेहरा सामने की तरफ किया मै पूछना चाहता था की इधर कहाँ अल्लापुर नहीं चलना पर कुछ पूंछ नही सका या पूंछा ही नही इंदुमती अपने गले मे शायद मेरी सांसों को महसूस कर रही थी और मै उसकी महक़ से पागल हो रहा था ऐसा लग रहा था कि अब ये कभी ना रुके चलती रहे और ऐसे ही उसी महक़ मे डूबा रहूँ, क्या है जी सो रहे हो क्या इंदुमती बोली, नही नही कहाँ चल रही हो घर नही चलना क्या मैने पूंछा तब इंदुमती बोली अभी तक नही बोले तो कुछ देर और चुप बैठे रहो, वैसे भी आज लॉज मे बता के आई हूँ की रात मे देर से आना है शायद बारह भी बज सकते है, बैरहना चौराहे के आगे इसाइयों के कब्रिस्तान के पास हीरोपुक रोक दी आम तौर पर इतनी रात को यहाँ सन्नाटा और डरावना लगता था, वैसे तब तक इंदुमती को भी नही पता था की वहाँ कब्रिस्तान है वो तो नए यमुना पुल मे काम चल रहा था वही देख रही थी, और जब मैने बताया तो बोली की चलो यहाँ से नए पुल की तरफ यहाँ रात मे भी काम होता है क्या ?

यमुना किनारे बैठ रहे यमुना का काला ठहरा हुआ पानी डरा रहा था, इंदुमती ये यमुना का पानी कितना ठहरा हुआ है और गंगा इतना तेज भागती है कि किसी के लिए वक़्त नही है और सब उसी को " माँ " कहते है जो तेज भाग रही है, इंदुमती बोली तुम भी इतना क्यो सोचते हो कभी ये नही सोचा की यमुना का ये आख़री पड़ाव है उसके बाद तो उसका अस्तित्व ही नही है। शायद इसे पता है इसका काला पानी जो गंगा से अलग है कुछ दूर बाद हमेशा के लिए खो जाएगा , और जो बनारस से इलाहाबाद कभी नही आया होगा वो कैसे जानेगा की यमुना मे कितनी गहराई थी वो तो गंगा ही जानता है ना , ये भी बेदना हो सकती है, हुम्म मै बोला पर मुझे यमुना का गंगा से प्रेम इस वेदना से कहीं अधिक लगता है । तभी तो वो अपने अस्तित्व को समाप्त कर हमेशा के लिए गंगा से मिल जाती है और उसी रंग मे खो जाती है , यही प्रेम होता है किसी मे इस तरह डूब जाओ की पता ही ना चले की तुम्हारा भी कोई अस्तित्व रहा होगा तभी संगम होता होगा, इतना कह कर मै वही लेट गया और अपना सर इंदुमती की गोद मे रख दिया, इन्दुमती मेरे माथे मे हांथ फेर रही थी और एक बार अपने होंठो को मेरे माथे के पास लाकर छोड़ दिया जैसे आँखों मे फूँक मार रही हो उसकी गरम गरम सांसे अंदर तक समा गयी और वो महक जैसे मै कभी भुला ही नही, इंदुमती मेरे बालों मे हांथ फेरते हुये बोली तुम ठीक ही कहते हो एक दूसरे मे डूबना ही संगम है, पर इस संगम मे भी एक हमेशा के लिए खो जाता है तो क्या ये प्रेम सही है , ये कैसा प्रेम है जो साथी का अस्तित्व ही समाप्त कर जाये प्रेम तो वो है जहां दोनों आसमान के तारों की तरह टिमटिमाते रहे, अमित तुम समझने की कोशिश किया करो, यमुना को गंगा मे मिल कर हमेशा के लिए इलाहाबाद मे समाप्त होना है ये उसका भाग्य है , गंगा के लिए प्रेम नही,

रात के बारह बज रहे होंगे शहर भी धीरे धीर खामोश हो रहा था, मै इंदुमती से बोला अब चलना चाहिए इस बार फिर हीरोपुक इंदुमती को ही चलाने को दे दिया और पीछे बैठ कर सोहबतियाबाग होते हुये नेताचौराहे पहुंचे और इंदुमती को उसके घर के सामने छोड़कर चलने लगा तो इंदुमती बोली अब दो को चलते है दो सितंबर को तुम्हारा बर्थड़े है ना, हुम्म तुमहे याद है मै बोला अच्छा चलो गुडनाइट कल मिलेंगे तब बात करते है , कह कर मै चलने लगा , पर सच तो ये था की मै राधा को छोड़ कर जाना ही नही चाहता था....................
क्रमशः......................

शनिवार, 6 सितंबर 2014

                                                               ध्यान से बेटा ई थ्रीजी है 

                                                               इंदुमती का पांचवां पन्ना 

सिविल लाइंस के राजकरन सिनेमा मे "हर दिल जो प्यार करेगा" देखना तय हो चुका था। सिनेमा की टिकट तो खरीदे जा सकते थे तब राजकरन का बालकनी ५१ रुपये का हुआ करता था पर उसके बाद खाना भी खाना था, इंदुमती को ना नही कह पा रहा था महीने का आखिरी समय चल रहा था, अब घर से पढ़ायी के लिये तीन से चार हजार रुपये महीने ही मिलता था,अब उसमे कमरे का किराया और बाकी के खर्च भी तो थे अब इन सबके बाद, ये सिनेमा और उसके बाद खाना खाने का प्लान मुझे परेशानी मे डाल रहा था, इंदुमती को समझाने की कोशिश भी की कि फिल्म देखने के बाद खाना खाने मे वक़्त लगेगा और लॉज वापस आने मे देर हो जाएगी, पर वो किसी तरह मानने को तैयार नही थी, उसका कहना था की अगर मुझे देर से आने मे परेशानी है तो मैटनी शो देखते है, समझ आ गया था की अब जेब खाली होगी अब जरूरत थी किसी मददगार की जो कुछ रुपए दे सके, दूसरी तरफ फिल्म देखने के लिए किसी से पैसे मांगु ये मुझे बुरा लग रहा था, अजीब परिस्थितियों में फंस गया था,
उस दिन रात भर इसी उधेड़बुन मे रहा की अब कैसे करें राधा से भी नही कह पा रहा था की पैसे नही है, यही सब सोच रहा था नींद आ नही रही थी, तो पढ़ने के लिए बैठा ही था, सामने दीपक भाई के बायो के कुछ नोट्स मेज पर रखे थे मै लेकर आया था और जल्दी ही वापस करने के लिए भी बोला था पर काफी वक़्त हो गया था दीपक मेरे ही शहर से था, दीपक के पास हीरोपुक थ्रीजी भी थी। दोनों काम बनते समझ आ रहे थे। पैसे और बाइक दोनों मिल सकती है ।
अगले दिन सबेरे ही जल्दी तैयार होकर निकला, दीपक भाई बागम्बरी गद्दी मे रहते थे, अपनी रेंजर साइकिल से बागम्बरी पहुंचे दीपक भाई अपने घर के बाहर ही खड़े थे शायद चाय पीने के लिए निकले रहे होंगे, देखते ही बोले आओ भइया आओ कैसे आना हुआ, मै शर्मिंदा था उनकी नोट्स वक़्त पे वापस करने नही गया था जो, फिर दीपक भाई बोले आओ तुम्हें चाय पिलाते है, चाय पीते पीते उन्होने दुबारा पुंछा और बताओ कैसे आना हुआ कुछ चाहिए, दीपक भाई भी मेरी आदत से खूब परचित थे मै तभी उनके पास जाता था जब कुछ काम होता था, वैसे भी वो मुझसे बड़े थे,तो उनसे बाते भी कम ही होती थी, मै चुप ही रहा कैसे बात करूँ इसी उधेड़बुन मे लगा था, चाय पीने के बाद वापस दीपक भाई के घर की तरफ चलने लगे, अब पैसे और हीरोपुक मांगनी तो थी ही, पर कैसे बोलू , पहले ही मै उनकी नोट्स महीने भर बाद वापस की है ,किसी तरह हिम्मत जुटाई और हांथ फैला ही दिये, भाई कल कुछ काम है तो आपकी गाड़ी मिल जाएगी क्या वैसे भी कल तो इतवार है, दीपक भाई मुसकुराते हुये बोले तो ये बात है तभी तो मै सोच ही रहा था की तुम आज कैसे दर्शन दे गए यार कुछ काम तो था, अच्छा कितनी देर चाहिए, मै बोला दोपहर वही एक डेढ़ बजे तक, कस मे कौनों सिनेमा जाना है का दीपक भाई ने पूछा, मै जवाब मे चुप ही रहा और अगली मांग रख दी भाई कुछ पैसे भी चाहिए घर जाना है एक दो दिन मे तो कुछ समान भी लेना है, कितना चाहिए दीपक भाई बोले पाँच सौ, ठीक है ले जाना तो पैसे अभी तो नही चाहिए, मैंने कहा नही भाई कल ही दीजिएगा । अब दीपक भाई ने आस्वास्थ कर दिया तो झूमता हुआ वापस लॉज आ कर शाम का इंतजार करने लगा ।
उयाध्याय ने आज कुछ पुरबियों को इक्ट्ठा कर रखा था, बाटी चोखा बना था, वैसे इलाहाबाद मे बाटी चोखा बनता नही था उसका तो प्रोग्राम होता था तो उसी प्रोग्राम मे हम भी शामिल हो लिए, ऐसे प्रोग्रामों की मेरी खोज जारी ही रहती थी साल मे कोई मुश्किल से २५ से ३० दिन का खाना ही मै अपने कमरे मे बनाता था, बाकी का ऐसे ही प्रोग्राम जीने का सहारा बन गए थे, उपाध्याय की बाटी खाते वक़्त तारीफ तो करनी पड़ती थी। "उपाध्याय जी बाटी तो सिर्फ आप ही बनाते है वैसे खाने के मामले मे पुरबियों का जवाब नही" बस इतना बोलते ही दो तीन दिन का खाना मुफ्त हो जाता
खाने के बाद कमरे मे किताबें पलटता रहा घड़ी मे चार बजे थे चाय पीने की इच्छा तीब्र हो रही थी चाय की दुकान अपने लिए मधुशाला जैसी ही थी उस वक़्त तक मधुशाला को लेकर अपनी सोच मे बच्चन साब की मधुशाला से मेल खाती थी चाय की दुकान मे चाय की चुस्की के साथ जगजीत सिंह की गज़ल "वो घड़ी दो घड़ी जहाँ बैठे वो जमीं महके वो शहर महके'' कुछ अलग ही मज़ा दे रही थी,गज़ल सुनते सुनते ही पास के बूकस्टॉल चला गया ये वही जगह थी जहाँ इंदुमती मुझे पहली बार मिली थी, किताबें देखते हुये अमृता प्रीतम का "कोरेकागज़" हांथ मे आ गया, कुछ देर किताब को देखता रहा फिर बंद कर दी एक डर सा आया मन मे की अगर किताब पड़ी तो कल सिनेमा नही जा पाऊँगा, बूकस्टॉल वाले से कोरेकागज़ कागज़ ले लिया और पुंछा की भइया कोई और नया तो नही जो ना पढ़ा हो और कुछ हल्का हो थोड़ा रोमांस के साथ, तो उसने लौलिता पकड़ा दी तब तक लौलिता पढ़ी नही थी पर किताब अच्छी नही है ये जरूर सुना था तभी से कुछ जिज्ञासा भी थी इसे पढ़ने की अब हांथ मे थी तो लेना ही मुनासिब लगा सोचा की देखते है क्या बुरा है इस किताब मे तब तक इंदुमती भी आ गयी थी
इन्दुमति के साथ फिर चाय की दुकान चाय पीते पीते ही कल सिनेमा जाने की योजना पर बात करने लगे और ईवनिंग शो का तय हुआ, और इंदुमती को बताया की दीपक भाई की हीरोपुक है, उसी से चलेंगे, इंदुमती बोली रिक्शे से ठीक रहता क्यु किसी दूसरे से मांगते हो रिक्शे से ही चले चलेंगे, चाय वाले को इंदुमती ने पैसे दिये और घर चल दिये तो कल शाम पाँच बजे मिलते है, कह कर इंदुमती से विदा ली, और अपने कमरे मे पहुँच गया, खाना बनाने का मन नही था तो उपाध्याय जी की तारीफ करने ही पहुँच गए, भाई उपाध्या जी आपका जवाब नही बाटी मस्त बनाते हो अब रात मे क्या खिला रहे हो, उपाध्याय भी ये सब समझने लगा था तो टपक से बोला "चोरय हो का मे" रोज़ बना बनाया पेल के सो जाते हो आज खाना है तो बर्तन धोने पड़ेंगे, मुझे भी खाना बनाने से बेहतर बर्तन धोना ही लगता था सो हाँ कर दिया, वैसे इसके सिवा कोई चारा भी नहीं था सबेरे उपाध्याय के जो भी मित्र आए थे सब खाना खा कर खिसक गए थे बेचारे को सब बर्तन अकेले ही धोने पड़े थे। रात मे खाने के बाद बर्तन धो कर, कुछ देर अपने सबजेक्ट देखता रहा और जब नींद आने लगी तो लोलिता खोल कर बैठ गया कुछ ही देर पड़ा इतनी बुरी भी नही थी जितना सब चिल्ला रहे थे चेतन भगत की किसी भी किताब से तो बेहतर ही था ये अलग बात है की चेतन भगत को मै जनता भी नही था और अब जान के जानना नही चाहता ।
अगली सुबह इतवार की थी ऐसा लग रहा था की इस सुबह का इंतज़ार मुझे बहुत लंबे वक़्त से है । काफी दिनों बाद उस दिन जल्दी ही उठ गया था, जब गाँव मे रहता था तो बाबा जी चिल्लाते थे की कभी उषा की लाली भी देखी है क्या तो उस दिन उषा की लाली देखने के लिए सबेरे ही छत पहुँच गया और बादल बेवफाई कर गए उषा की लाली तो दिखी ही नही रवि (सूरज) के भी दर्शन नही हुये निराशा के साथ काफी देर तक छत मे टहलता रहा अब इंतज़ार था तो सूरज के क्षितिज की तरफ जाने का वापस कमरे मे आकर पढ़ने लगा वही लगभग दो बजे के आस पास दीपक भाई से मिलने बगम्बरी निकाल गया।
बगम्बरी जाते वक़्त रास्ते मे कई बार मन परेशान था की अगर दीपक भाई नही मिले तो क्या करूंगा उस वक़्त मेरे पास सिर्फ २५० रुपए बचे थे अब उसमे किस तरह सिनेमा, खाना आने जाने के रिक्शे के पैसे कैसे होगा। ये सब सोच ही रहा था की दीपक भाई मिल जाये कहीं गए न हो, दीपक भाई घर मे ही मिल गए और बिना ज्यादा वक़्त लिए ही हीरोपुक की चाभी दी और बोले "ध्यान से बेटा ई थ्रीजी है" दो गियर वाली हीरोपुक ना समझना हाँ कितना रुपया चाहिए पाँच सौ मे काम चल जाएगा मै कुछ बोला नही बस पैसे और थ्रीजी लेकर निकल लिया, अब अपने चौराहे पर आकर चाय पीने लगा चाय क्या पीना था अब तो इंदुमती के आने का इंतज़ार था, चाय पी ही रहा था की इंदुमती आ गयी यही कोई पाँच सवा पाँच का वक़्त रहा होगा हम सिविल लाइंस के लिए निकल लिए।
राजकरन पहुँच कर टिकट लेने के लिए लंबी लाइन देख कर इंदुमती बोली तुम रुको मै टिकट लेती हूँ, मै टिकट के लिए पैसे निकाले तो इंदुमती बोली की मै दे रही हूँ ना तो क्यु परेशान हो, टिकट लेने के बाद शो मे काफी वक़्त था तो हम कॉफी हाउस चले गए, वही अम्बर कॉफी मे सड़क किनारे ही कुर्सी डाल कर बैठ कॉफी आने का इंतज़ार कर रहे थे इन्दुमति उस दिन सुर्ख़ लाल रंग का कुर्ता जिसमे सफ़ेद रंग की कुछ आड़ी तिरछीलाइने खिची हुई थी उसके नीचे सफ़ेद रंग की चूड़ीदार सलवार पहने थी सलवार की पैर के पंजे पर पड़ी सलवटें गोरे पैरों पर काले रंग की साधारण सी चप्पल , जालीदार सफ़ेद चुन्नी जो हवा हर बार अपने साथ उड़ा ले जाना चाहती थी बेतरीबी से बंधे बाल हर बार मांथे को चूम रहे थे, और इंदुमती हर बार उन्हे हटा कर अपने कान के पास कैद कर देती पर जैसे वो कैद मे रहना ही नही चाहते थे हर समय मांथे के साथ साथ होंठो पर भी अपनी मौजूदगी का एहसास करा जाते, इंदुमती को देख कर लग रहा था की यही सौंदर्य का चरम है, जिस तरह वो बार बार हवा मे उड़ रही अपनी चुनरी संभालती कभी अपने बालों को कान के ऊपर फंसा देती इस बेतक़्लुफ़ी के साथ भी कितना आत्म विश्वास था उसके चेहरे पर नज़र एक पल के लिए भी हटाने का मन नही कर रहा था, इतने मे कॉफी वाला कॉफी लेकर आया और मै इंदुमती के चेहरे पर ही खोया था जाने क्या ढूंढ रहा था जैसे उस दिन सब कुछ जान लेना चाहता था, इंदुमती ने कॉफी लेते हुये जैसे मुझे नींद से जगाया, मै थोड़ा झेपते हुये कॉफी पकड़ी इंदुमती बोली क्यु जी कहाँ खो जाते हो, अभी प्रीती ज़िंटा के डिम्पल देखना, मै चुप चाप कॉफी पिता रहा जैसे कोई चोर चोरी करते पकड़ा गया हो, कॉफी पीने के बाद हम राजकारन पहुंचे मैंने स्टैण्ड मे थ्रीजी खड़ी की और हॉल मे पहुंचे तो फिल्म शुरू हो चुकी थी.....................
क्रमश;..........

शनिवार, 30 अगस्त 2014

                                                                      कम्पनी बाग

                                                              इंदुमती  की चौथी किस्त

उस दिन कंपनी बाग हम दोनों के बीच तमाम अलिखित अनबोले शब्दों का साक्षी बना था, कंपनी बाग आज भी इलाहाबाद मे एक लंबे इतिहास का साक्षी ही तो है, रोज जाने कितने लोग है जो वहाँ टहलने जाते है और बिना कंपनी से पूछे ही वापस हो लेते है, कितना कुछ है जो उसके सीने मे दफन है, कभी पूछिएगा उससे उसका दर्द उसका इतिहास बहुत कुछ बताता भी है । कंपनी बाग आज़ाद से लेकर आज तक बहुत से ऐसे विषय है जिनके विषय मे सिर्फ सच उसी को पता है, तो आज हमने उसी को साक्षी बना लिया था।

बात करते करते काफी वक़्त गुजर गया था यही कोई चार या पाँच का वक़्त हो रहा होगा, इंदुमति अल्लापुर चलने के लिए बोल रही थी पर मै था की वही पसरा रहा मेरा कहीं जाने का मन ही नही हो रहा था, आसमान मे काले बादल छा रहे थे, बहुत खुशनुमा मौसम था घास का लंबा चौड़ा मैदान घने पेड़ों की छाव जो अब धीरे धीर फैल रही थी पता ही नही चल रहा था की पेड़ अपनी छाया बड़ा कर हम दोनों को पास लाना चाह रहे थे की बादल हर तरफ अंधेरा करके फिर हमे दूर करने की चाले चल रहा था, पर मै बस इंदुमति चेहरे से नज़र नही हटाना चाहता था, इंदुमति इस बार चलने के लिए खड़ी होती हुई और मेरे नजदीक आकर बोली चलो अमित चलना है की नही, मै एकटक उसे देखता रहा और जब वो मेरे क़रीब आ गयी तो इंदुमति का हांथ पकड़ कर मैंने उसे बैठने को कहा इंदुमति मेरे पास ही बैठ गयी, बोले क्या है चलो न देर हो रही है, मै इंदुमति को देखता रहा और
"गुनाहों के देवता की एक लाइन" बोला मेरी इंदुमति,

"बादशाहों की मुअत्तर ख्वाबगाहों मे कहाँ
वो मज़ा जो भीगी भीगी घास मे सोने मे है"।
"मुतमइन बेफिक्र लोगों की हंसी मे भी कहाँ
लुफ्त जो एक दूसरे को देखकर रोने मे है"।।

इंदुमति चुप सी हो गयी कुछ देर के लिए एक गहरी खामोशी हुई हवाओ की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही थी, बीच बीच मे शाम को टहलने वालो के क़दमो की आवाज़ उस खामोशी को तोड़ जाती और इंदुमति सपनीली मुस्कुराहट के साथ बादलों को देख रही थी, इंदुमति मेरी राजकुमारी

"कैफ बरदोश, बादलों को ना देख,
बेखबर तू न कुचल जाय कहीं"।

फिर इंदुमति उसी ख़ामोशी के साथ मेरी तरफ मुखातिब हुई, और जैसे हम एक दूसरे की आंखो मे कुछ ढूंढ रहे थे, और आज ही जान लेना चाहते थे की आने वाला वक़्त क्या होगा ?, इंदुमति कुछ देर तक वैसे ही देखती रही फिर थोड़ा पीछे जा कर बेतरीबी से वही घास मे लेट गयी और हम बिना कुछ बोले ही कुछ एक दूसरे से कहते रहे, लाइट जल चुकी थी शाम के सात बजे रहे होंगे, हम दोनों नाजरेथ अस्पताल के सामने वाले गेट से निकले वहाँ रिक्शा आसानी से मिल जाता था।

हम अल्लापुर आ गए चौराहे मे चाय पी इंदुमति ने अंडे लिए तब तक मै भी अपने लिए सब्जी ले चुका था, इंदुमति भी सब्जी की दुकान मे आ कर सब्जियाँ लेने लगी सब्जी लेकर हम अपने अपने आशियाने के लिए चल दिये, पर मेरा मन इंदुमति से दूर होने का नही था, पर जाना तो था ही
भारी कदमों से लॉज की सीढ़ियाँ चढ़ता गया, ऐसा लग रहा था जैसे अपना गाँव छोड़ कर पहली बार कही दूर जा रहा हूँ ।

कमरे मे लेटा हुआ मस्तिस्क और दिल के द्वंद से जूझ रहा था। मै खुद नही जान पा रहा था की मै चाहता क्या हूँ, और कहाँ जाने को तैयार हूँ, इसी बीच उपाध्याय अपने चिरपरिचित अंदाज़ मे 'कस मे खाना खाबों की कुंभकरन के नै फैले रहबों' मेरा आज उपाध्याय के किसी सवाल का जवाब देने का मन नही था । पर मै ऐसा कर ही नही सकता था उपाध्याय भी महारथी था जब तक उठ ना जाऊँ और इसी महारथी की वजह से मै कई बार खाली पेट सोने से बच जाता था। उपाध्याय था बहुत कलाकार हमेशा बर्तन मुझी से साफ करवाता था, बर्तन तो किसी तरह साफ कर ही लेता पर खाना बनाने से बचता रहता था, उपाध्याय जौनपुर के किसी गाँव का खाँटी पुरबिया था। हाँ वो ये बताना कभी नही भूलता था की उसका गाँव उसी गाँव के पास है जहां "नदिया के पार" सिनेमा की शूटिंग हुयी थी, उपाध्याय को किताबों से कोई खास लगाव नही था वो वही पढ़ता था जिसे पढ़ने के लिए वो इलाहाबाद आया था इसके बाद भी एक उपन्यास उसके पास था "कोहबर की शर्त" तभी मुझे पता चला था की नदिया के पार फिल्म का यही आधार था, ये अलग बात है की उस किताब को मै आज तक पढ़ नही पाया। उपाध्याय रात मे किताब पढ़ने को देता और सुबह जब मै नहाने जाता तो इसी बीच वो अपनी किताब ले जाता, ख़ैर आज याद आई है, तो अब पढ़ लेंगे।

उस दिन खाना खाने के बाद, रेणु के "कितने चौराहे" मे उलझ गया आज़ादी के आस पास का बिहार जब गाँव से शहर के बीच का मानो भाव बस वो किताब ऐसी मिली की काफी सारे द्वंद रेणु के चक्रव्यूह मे फंस कर रह गए। अब मन मे किताब को लेकर उत्सुकता बढ रही थी की अचानक बिजली चली गयी शाम को मामूली बूँदा बाँदी भी हो गयी थी तो थोड़ा उमस बड़ी थी, बिजली के इंतज़ार मे काफी देर तक कमरे मे ही पसरा रहा, बालकनी से लड़को की आवाज़े आ रही थी सब अपने अपने कमरों से बाहर आ चुके थे, मेरे जैसे कुछ ही काहिल किस्म के रहे होंगे जो इतनी गर्मी मे भी कमरे से बाहर नही निकलते, तभी राजू ने आवाज लगाई अरे सर जी बाहर आइये देखिये एकदम मस्त हवा चल रही है, "राजू वर्मा चंदौली का था उसके पिता जी कृषि विभाग मे अफसर थे जब वो इन्हे पहली बार यहाँ छोड़ने आए थे तब मेरी मुलाकात हुयी थी उनसे" राजू के बुलाने पर लगा की काहिलपन छोड़ कर बाहर जाना चाहिए प्राकृतिक हवा का भी आनन्द लिया जाय किताब पढ़ने से उस हवा को नही समझा जा सकता,

बाहर सब कोई न कोई चुटकुला या कोई घटना इन्ही सब मे लगे रहे मै भी उपाध्याय जी से पूर्वाञ्चल की दबंगई की तमाम कहानियाँ सुनता रहा। मामला तो कई बार ऐसा हुआ की अजय रॉय, मुख्तार, शाहबूद्दीन, सब कहीं ना कहीं हमारे उपाध्याय जी के कृपा के पात्र थे इन सब का जीवन बचाने वाला और कोई नही हमारे पुरबिया उपाध्याय जी ही थे, माफ़िया को लेकर मेरा काफी ज्ञानवर्धन होता रहा

अगस्त की वो शाम बहुत भारी लग रही थी दोपहर मे झमाझम बारिश के बाद भी गर्मी अपने शबाब पर थी । उदास सी शाम थी क्षितिज की लाली भी स्याह होने लगी थी बादल सांस रोके पड़े थे जो तारे टिमटिमाने के लिए बेताब थे उनका भी दम काले बादलों के डर से घुट रहा था, आज समझ आ रहा था की पंछी कितने आज़ाद होते है कही भी जा कर किसी भी छत पे बैठ सकते है पर मै तो इंदुमति से मिलने उसके लॉज भी नही जा सकता था वहाँ आने के लिए भी उसने मना किया था बोला था जब कोई जरूरी काम हो तभी आना अब कैसे कहता की दो दिन से तुम्हें देखा नही है और दो दिन ना तो सब्जी लेने आती है और कोचिंग का वक़्त ऐसा था की उसी टाइम मुझे भी अपनी कोचिग जाना पड़ता था यही सब सोच रहा था की अगर आज नही आती तो घर जा कर ही मिलने के लिए बोल दूँगा, और कहूँगा की सब्जी रोज लिया करो बासी खा कर बीमार हो जाओगी, इतवार को फ़िल्म देखने तो जाना है कौन सी और कितने समय कुछ बताया नही है फिर बाद मे आंखे दिखायेगी ये नही वो वाली देखनी थी, यही सब सोचते हुये सिगरेट सुलगा रहा था, जैसे ही सिगरेट फेंकने के लिये पीछे मुड़ा तो देखा की राधा किताबों की दुकान मे कुछ ले रही थी, मै पास जाकर धीरे से बुलाया "इंदुमति इंदुमति"

राधा ने पलटते ही कहा सिगरेट खत्म हो गयी, तुम भी अंडे नही खाते सिगरेट पीते हो, अरे छोड़ो भी राजकुमारी अब ये बताओ पिछले दो तीन दिन से दिखी नही क्या कोई परेशानी है, राधा ने ना मे सिर हिला दिया और चाय की दुकान की तरफ बढ गयी मै भी उसके साथ चल दिया, चाय पीते पीते सिनेमा जाने के लिए बात करने लगा अब फिल्म को लेकर दोनों मे टकराव जैसी स्थिति बन सकती थी अगर मै उसकी बात न मानता, मुझे लग रहा था की सतीश कौशिक की "हमारा दिल आपके पास है" देखे उसे ना देखने के उसके पास दो बहाने थे एक तो उसे यह फिल्म से सीरियस फिल्म लग रही थी दूसरी की इसके लिए संगीत सिनेमा मुट्ठीगंज जाना पड़ता, तो उसका जो विकल्प था वो मै नही देखना चाहता था पर देखना पड़ा, इंदुमति के आदेशनुसार हमे सिविल लाइंस राजकरन टाकीज़ मे "हर दिल जो प्यार करेगा" देखनी थी और वहीं खाना खा कर आना है, अब इसके लिए अगर कोई बाइक मिल जाएगी तो सब सही हो जाता,,,,,,,,,

क्रमशः

शनिवार, 23 अगस्त 2014

                                                              कुछ जोगाड़ कर देव यार

                                                              इंदुमती  की तीसरी क़िस्त 

फ्रेंडशिपडे के बाद मैने फिर रूम से निकलना बंद कर दिया था। एक अजीब सा डर जो सिर्फ महसूस किया जा सकता "जैसे आप किसी की कोई चीज चुरा रहे हों और वो देख कर अनदेखा कर जाय और आपसे कुछ न बोले'" कई बार मन करता की कोई किताब ले आऊँ शाम की चाय भी बंद थी सब्जी भी उपाध्याय ही लाता था । बस कमरे मे पड़ा रहता था उपाध्याय को लगता की आज कल कुछ ज्यादा ही काहिल हुआ जा रहा हूँ उसी का बनाया खाना भी खाता हूँ और रौब भी गांढता हूँ , अब कई दिन हो चुके थे इस बार इंदुमति भी एक भी दिन नही आई ना ही खाना भिजवाया।
एक हफ्ते तक कमरे मे रहने के बाद इतवार को शिवकुटी जाना था, वहाँ "धर्मवीर भारती फैंसक्लब" की बैठक थी ये क्लब हमही कुछ दोस्तो ने मिलकर बनाया था जिसके दस नियमित सदस्य बाकी की संख्या घटती बढ़ती रहती थी आम तौर पर पंद्रह से बीस सदस्य रहते थे जो प्रतिमाह 20/- की शुल्क जमा करते थे और उन रुपयों से किताबे आती थी तो सभी कितबिया चरसी उसे पड़ते थे अब किताबे थोड़ा महंगी थी तो ये तरीका निकाला था क्लब की शुरवात मै और आशीष ने की थी बाद मे और लोग मिलते गए वैसे क्लब का एक उद्देश्य और भी था वो की हम सभी पाठक के साथ लेखक बनने के लिय भी उत्साहित रहते थे । तो जो भी उल्टी सीधी कविताए कहानियाँ लिखते तो वो भी वहाँ सुनाई जाती, और सभी को एक स्वर मे तारीफ करनी पड़ती चाहे बाद मे लाख कमियाँ निकले या निकाली जाए ।
शिवकुटी वाली बैठक मे भी जाने का मन नही था पर सोचा की इलाहाबाद मे रह कर अगर नही जाता तो भी ठीक नही है, और जाने का एक फायदा ये भी है की कुछ नया मिल जाएगा पिछली बैठक मे ही रेणु का उपन्यास ""कितने चौराहे"" मंगाया गया था तो उसे अभिषेक ने ले लिया था, अभिषेक विश्वविध्यालय का छात्र था खाँटी पुरबिया कोई भी किताब आए पहले वही ले जाता फिर पढे या ना पढे पर नयी किताब पर पहला हक़ उसी का था, रेणु की रचनाएँ मुझे पसंद थी तो "कितने चौराहे" की चाह मे ही शिवकुटी चला गया, बैठक हुयी सबने क्या पढा इस पर चर्चा हुयी कुछ कविता कहानियों का पाठ हुआ एक कविता अभिषेक ने लिखी थी विभाजन के दर्द के साथ सबने तारीफ की कुछ कमियाँ थी पर मै बोल भी नही पाया अगर कुछ कहता तो यही होता की "एको ठो लिखे हो का मे जाऊन लिखत है बस वही का पेलो" अब तारीफ इतना हो गयी थी की अभिषेक बाबू अपने को धर्मवीर भारती समझ लेहीन, इतने मे ही आशीष बोला की यार ये छपने लायक है कौनों अखबार मे कुछ जोगाड़ कर देव यार, इसी मुद्दे को लेकर काफी देर तक गहमागहमी फिर सब वैसे ही, और उस दिन क्या उस क्लब की कभी कोई कविता या कहानी कही नही छपी, बैठक समाप्त हो चुकी थी मै भी किताब ले कर शिवकुटी से ही गंगा किनारे चला गया
गंगा के तेज मटमैले बहाव को देख कर अजीब सी उलझन हो रही थी जिसे पूरा हिंदुस्तान पवित्र अमृत मानता है वो पानी मै कभी ना पीयू, गंगा शांत पूरे वेग से अपने गन्त्ब्य के लिए दौड़ रही थी जैसे वो भी यहाँ रहना नही चाहती इस दुनिया से तंग आ चुकी है किनारे मे कौन उसे क्षतविक्षत कर रहा उस पर वो ध्यान ही नही देगी। कितने पापी अपना पाप गंगा के सर मढ़ना चाहते है, ये सब गंगा अनदेखा कर रही थी और युगों से इस गंदगी से दूर जाना चाहती है पर जा नही पाती, गंगा माँ है और मै उससे अपना रिश्ता समझना चाहता था, पर वो बराबर भाग रही थी ये कैसा रिश्ता था, इंदुमति कहती थी की रिश्तो को ले कर मेरी समझ कमजोर है शायद तभी मै अपने और गंगा के रिश्ते को समझ नही पाया, पर एक संतुष्टि मन मे हमेशा है की जब भी दुनिया से थक जाऊंगा बीमार रहूँगा तो गंगा माँ के पास ही जाऊंगा वो अपनी गोद मे जगह जरूर देगी और अपने साथ ले जाएगी यही सब सोचते शाम हो गयी थी, गंगा किनारे से चलते हुये शिवकुटी चौराहे मे आकर चाय पीने लगा तभी पीछे आशीष ने आवाज़ दी 'कस मे कहाँ अल्लापुर नही गए का' नही बस यही गंगा किनारे चला गया था, कुछ टेंशन आशीष ने पूछा मै बोला नही बस कुछ मन भारी है कुछ अच्छा नही लग रहा, आज यही रुको कल जाना और चलो सीनेमा दिखाते है। चाउचक सिनेमा है अवतार मा रामगोपाल वाला जंगल और उर्मिला इतना कह कर अपनी बत्तीसी दिखा दी
तेलियरगंज मे वही एक सिनेमाहाल था ही लोगो का तो पता नही पर रामगोपाल वर्मा की फिल्मे मुझे ठीक लगती थीं, जब भी कोई नयी फिल्म रिलीज़ होती तो वह पूरा शहर घूम कर आखिर मे अवतारसिनेमा मे लगती थी, जंगल भी मुझे औसत ही लगी, सिनेमा देख कर वापस आए तो रात तीन बजे तक बाटी चोखा का कार्यक्रम चलता रहा, बाटी चोखा एक एसी परम्परा के साथ बनता की जैसे उसे अकेले खाना अपराध हो और ये प्रयाग की धरती मे संभव नही है, जब भी किसी के यहाँ बाटी चोखा बनता तो पड़ोसी उस दिन उसी के यहाँ खाना अपना धर्म समझते हो, उस रात आशीष के साथ जैसे कुछ आत्मबल फिर बढ गया था ।
अगली सुबह जल्द ही अल्लापुर आ गया और राधा (इंदुमति) से मिलने की योजनाओ मे शोध चल रहा था, शोध का परिणाम यह रहा की कुछ नही समझ आया तो सीधा इंदुमति के घर ही पहुँच गया डोरवेल बजाने पर मित्तल साब की पत्नी ने दरवाजा खोला अभिवादन ने हांथ जोड़ते हुये मैंने पूछा राधा है क्या.? इतना कह कर वो चली गयीं कुछ देर मे राधा आई और बोली क्या है...? मेरे पास उसके सवाल का कोई ठीक सा जवाब नही था तब भी मैंने उसे कहा तैयार हो कर आओ कटरा चलना ही और मिसेज़ मित्तल से बताना की शाम को देर हो जाएगी ।
वापस आ कर अपनी बालकनी मे खड़े राधा का इंतज़ार कर रहा था, राधा गली मे आती दिखी तो तो मै भी बालकनी से नीचे आ गया था, इंदुमति को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे वो बादलों से उतर के आ रही हो, उस दिन इंदुमति ने सफ़ेद चूड़ीदार सलवार के साथ कुछ दीला सा गुलाबी कुर्ता और सफ़ेद चुन्नी पैरो मे बादामी रंग की चप्पल ये सब मुझे एक कवि की कल्पना की तरह लग रहा था हम दोनों साथ साथ चल दिये और बिना कुछ बोले मै उसे पूरी तरह जान लेना चाहता था चौराहे मे आकार रिक्शा लिया और आगे चल दिये रिक्शे मे बैठते वक़्त भी ना रिक्शे वाले ने कुछ पूछा ना राधा ने एक समर्पण सा भाव था रिक्शा वाला भी सीधी दिशा मे चलता रहा और आगे जा कर पुराने साकेत आस्पताल के पास ही रिक्शा छोड़ दिया
रिक्शे से उतरने के बाद इंदुमति ने पुंछा अब रिक्शा क्यु छोड़ दिया कटरा चलना था ना, बिना कुछ बोले ही मैंने कहा चाय पीते है, कैफे से कुछ नोट्स ले कर चलते है, खाने के लिए वहीं कटरा मे देखते है, नोट्स ले कर पैदल ही विश्वविद्धयालय की तरफ चल दिये, चलेते हुये मैंने कहा कहाँ थी इंदुमति इतने दिन कुछ पता नही चला तुम्हारा आज जब हफ्ते भर से ज्यादा हो रहा था तो सोचा की घर जा कर बुला लूँ घर चली गयी थी अभी कल ही तो आई हूँ इंदुमति बोली, तभी तो मै रोज शाम चौराहे पर इंतज़ार करता था की शायद तुम कोई अंडे लेने ही आओ पर तुम्हारा पता नही था, इसके बाद जो हुआ वो मैंने सोचा भी नही था, इंदुमति रुक गयी और मेरी तरफ देखते हुये बोली ओ तुम रोज शाम इंतज़ार करते थे,उसकी आंखे सुर्ख हो चुकी थी क्रोध साफ समझ आ रहा था,इंदुमति बोली की मुझे लगा की तुम ईमानदार हो पर तुम झूठे बेईमान हो तुम्हें दूसरों को तकलीफ देने मे मज़ा आता है, रोज शाम इंतज़ार तुमने नही मैंने किया है, और जब पता चला की तुम अपने कमरे हो, तब भी तकलीफ हुई थी पर फिर भी इंतज़ार किया कल इतवार था तो तुम्हारे रूम मे भी पता किया तो तुम शिवकुटी गए थे, किसी से कितना झूठ बोलोगे और कितनी तकलीफ दोगे अमित और इन सबके बाद भी हम साथ मे जा रहे है, अब तुम बिना कुछ बोले चलते चलो यही बेहतर है।
कुछ दूर और चलने के बाद रिक्शे वाले को आवाज़ दी "कंपनी बाग चलबों" कंपनी बाग पहुँच कर वही एक पेड़ के नीचे फैल गया, इंदुमति भी कुछ सामान्य थी हम दोनों मे से कोई उस सन्नाटे को जैसे तोड़ना नही चाहता था, उस दिन इंदुमति रोज़ से ज्यादा सुंदर लग रही थी आज उसने बालों को कुछ डीला बांध रखा था इसके बाद भी कुछ बाल हवा के साथ उड़ जाना चाहते हों, मैंने इंदुमति को पास आ कर बैठने के लिए कहा तो वो और पीछे खिसकते हुये अपनी चुन्नी ठीक करने लगी, मै बोला अब भी नाराज़ हों माफ नही करोगी, वो बोली नाराज़ ही कब थी जो बात माफी की हों मै तो बस इतना चाहती हूँ की हम दोनों के बीच ऐसा कुछ ना हों की माफी जैसे शब्द को बीच मे आना पड़े उस दिन हम दोनों के बीच काफी बातें हुई जैसे दोनों की पसंद ना पसंद पे बात हुयी और कुछ आ लिखित समझौते भी हस्ताक्षर किए गए, जैसे हम दोनों मे कोई भी बिना बताए कहीं नही जाएगा कम से कम इलाहाबाद तो बिना बताए बिलकुल भी नही छोड़ेगा। और अगले इतवार को सिनेमा देखने भी चलेंगे सिनेमा का शौक़ हम दोनों को था ।
क्रमशः--------------

गुरुवार, 21 अगस्त 2014

                     ____________ कुछ राष्ट्रवादी देशद्रोही भी बोल सकते है______________


आज 68वां स्वतन्त्रता दिवस है । सब अपनी अपनी तरह से इसे लेकर उत्साहित, बच्चे स्कूल मे मिलने वाले गिफ्ट और मिठाइयों के लिए, विभागीय अधिकारी मिठाई मे बचे रुपयों को लेकर, अपने नेता जी एक दम नये भाषण को लेकर, पर नेता जी को यह नहीं पता की जो वो बोलने वाले है वो उनसे पहले वाले विधायक जी भी यही सब बोलते थे।
15 अगस्त मेरे लिए एक छुट्टी का दिन होगा जो मै अपने परिवार के साथ बिताने वाला हूँ। पत्नी बच्चों के लिये सुबह का नस्ता बनाऊँगा फिर कही घूमने जाऊंगा किसी माल सिनेमा या जो मेरी बेटी बोलेगी पर किसी नेता जी भाषण सुनने का बिलकुल भी मन नहीं है। अगर कहीं नही गया तो पीसी मे कुछ गाने सुनुगा। फिर बच्चो के साथ कार्टून देखुंगा कम से कम मंच वाले कार्टून से टीवी वाले कार्टून ज्यादा सच्चे और अच्छे लगते है । मुझे कुछ राष्ट्रवादी देशद्रोही भी बोल सकते है और कुछ बड़का नेता टाइप लोग पाकिस्तान जाने के लिए भी बोल सकते हैं, बोले मुझे कोई फर्क नही पड़ता फर्क तो तब पड़ता जब सुबह टंकी मे पेट्रोल लेने जाता हु तो दाम आधी रात से दो रुपए बड़ गए होते है, फर्क पड़ता है जब शाम को घर आते वक़्त सब्जी वाला बताता है की टमाटर 80 रुपए किलो है प्याज भी महंगा है । तो लगता है जिन लोगों ने मुझसे ये सब सही दाम मे दिलाने की बात की थी वो वादे से मुकर गए। और मै कुछ नही कर सकता तो मुझे अपनी स्वतन्त्रता पर शक होता है शक तब और पुख्ता हो जाता है जब दो के साथ आप तीन लोग किसी जरूरी काम से बाइक मे जा रहे हो तो ट्राफिक वाला आपको रोक लेता है , और वहीं से तीन सवारी पास आटो वाला पंद्रह ले कर निकल जाता है । आप मजबूरी मे तीन बैठे है। तो अपराध बनता है और आटो वाला निकल गया क्यूकी वो पैसे या पुलिसिया भाषा मे इंट्री देता है। तब एक बार फिर मै अपनी स्वतन्त्रता मे शक करता हूँ।
जिन नेता जी का भाषण होना है उनके कई रिश्तेदार होंगे जिन्होंने बिजली के मीटर रुकवा दिए होंगे, कुछ जो ठेकेदारी करते है उन्होने सड़कें ऐसी बनाई है की जो जल्दी ही गड्डो मे तब्दील हो गयी है । डैम ऐसे बनाए की वो एक बारिश मे ही बह गए अब ये सब लोग तालियाँ बजाएगे खुशियाँ मनाएगे क्यूकी ये सब आज़ाद है।
मै कैसे मनाऊ आजादी का जश्न जबकि मुझे पता है की मै आजाद नही हूँ । कल से फिर वही ऑफिस वही रूटीन पर अपने नेता स्वतन्त्रता दिवस की थकान और तनाव से मुक्ति के लिए सरकारी खर्चे से यूरोप जा सकते है। या तो इसी धन से कहीं कुछ भक्ति भी दिखा सकते है। कल मै गैस सिलेन्डर की लाइन मे खड़ा रहूँगा और नेता जी या किसी अधिकारी का ड्राइवर आकर एक चार छः सिलेन्डर ले जाएगा और मुझे फिर कल आने के लिए बोला जाएगा । गैस एजेंसी वाले की भी मजबूर है पहले तो एजेंसी इन्ही नेता और अधिकारियों के मेहरबानी से मिली है दूसरे उसे हर महीने गैस ब्लैक भी तो करनी है नही तो इलाके के दबंग लोगों के होटल और रेस्टोरेन्ट कैसे चलेंगे ये सब एक दूसरे के पूरक है एक मै ही अपने को अलग पाता हूँ ।
तो मै भी इन सब दूर ही रहूँगा और अपने बच्चों के साथ खेलूगा टीवी देखुंगा कल सोलह अगस्त को बच्चे का बर्थडे है जो इस महीने का बजट बिगाड़ेगा पर पर उसे नए कपड़े गिफ्ट मे कुछ वीडियो गेम दिलाने है ये मेरी ज़िम्मेदारी है और वादा भी है जो पूरा करना है पूरा होगा मेरा बेटा सजावट के लिए कुछ प्लास्टिक के झंडे ले आया था सामने शोकेस मे रक्खे थे उन्हे देख कर जय हिन्द बोलने का मन किया पर शब्द नही निकले आंखे जरूर गीली हो गयी थी। खुद को बहुत ही अकेला पाता हूं। सोचता हूं, क्या और भी लोग होंगे मेरी तरह जो आज अकेले में आज़ादी का यह त्यौहार मना रहे होंगे। वे लोग जो इस भीड़ का हिस्सा बनने से खुद को बचाये रख पाए होंगे..?? वे लोग जो अपने फायदे के लिए इस देश के कानून को रौंदने में विश्वास नहीं करते..?? वे लोग जो रिश्वत या ताकत के बल पर दूसरों का हक नहीं छीनते..??????

शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

                                           बच्चों को भी हो सेक्स की जानकारी 


आज कल सेक्स को लेकर एक तरह की बहस चल रही है। अब इसको लेकर हम अपने घर या किशोर बच्चों से कैसे बात करें। यह एक तरह का गंभीर सवाल बन कर सामने है। 
माता-पिता यह बात माने या न माने पर हकीकत यही है की बच्चे सबसे ज्यादा अगर किसी से प्रभावित होते हैं तो वे होते हैं उनके अपने माँ-बाप। इस वजह से, यह बहुत महत्वपूर्ण है कि आप एक ही समय में अपने आपको कमतर और अपने बच्चों के किशोर मित्रों को ताकतवर न माने। अब तक किए गए अनुसंधानों से यह स्पष्ट है की माँ-बाप और बच्चों के मध्य प्यार भरा करीबी रिश्ता किशोरावस्था के मुश्किल दौर में उनकी सबसे बड़ी ताकत होता है और जीवन का कोई भी कठिन निर्णय लेते वक्त उनका सहायक बनता है। वे सदैव अपने मां-बाप में ही सकारात्मक, व्यस्क रोल मॉडल तलाशते है जो जीवन की कठिन राह में उनका सही मार्गदर्शन कर सकें। इसलिए माँ-बाप का भी कर्तव्य बनता है कि वे अपने बच्चों के साथ स्वस्थ और ईमानदारीपूर्ण रिश्ता कायम करें।
समाज में जिस तरह यौन अपराधों की वृद्धि हो रही है किशोर अपराधियों की संलग्नता बढ़ी है उसे देखते हुए परिवार की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। यह महत्वपूर्ण है की किशोरवय पुत्र या पुत्री के साथ सेक्स, लव और रिश्तों को लेकर खुलकर बात की जाय न कि कहानियों या मिथकों का सहारा लेकर उन्हें समझाने की कोशिश की जाय। भारतीय परिवारों में सेक्स जैसे विषयों पर प्रायः घर पर बात नहीं होती। लेकिन सोचकर देखिए अगर आप ही उनसे इस विषय पर खुल कर बात नहीं करेंगे तो वे कहीं और से जानकारी लेने की कोशिश करेंगे जो संभवतः सही रास्ता नहीं होगा और हो सकता है कि भविष्य में आपके विश्वास को भी ठेस पहुँचाए। इसलिए कच्ची उम्र के साथ जीवन में आने वाले बदलावों के बारे में एक दोस्त की तरह उससे बात करिए। एक ही लाइन में आप उसे जल्दी सेक्स के संभावित जोखिम के बारे में बता सकते हैं और उससे बचने के तरीके भी बता सकते है ताकि अंजाने में उससे कोई गलती न हो।
आपके अपने किशोर के साथ रिश्ते की गुणवत्ता विशेष रूप से यौन समस्याओं के बारे में बात कर रहे हो, सकारात्मक प्रभाव डालती है। सिर्फ इसलिए की आपका बच्चा अभी व्यस्क नहीं है का यह मतलब नहीं है कि उसकी किसी अन्य व्यक्ति के प्रति प्रबल और शक्तिशाली भावनाएं न हो तथा वह उसके साथ सेक्स संबंध बनाने की इच्छा न रखता हो। और इस कच्ची उम्र में वह किसी के प्यार में न पड़ जाए। यह स्थिति आपके लिए जितनी डरावनी होगी उससे ज्यादा खतरनाक उस किशोर के लिए होगी जो भावावेश में आकर कोई ऐसी गलती न कर बैठते है जिसकी भरपाई संभव न होती।
अपने किशोरों की भावनाओं का सम्मान दीजिए, किसी भी विषय पर उनकी टिप्पणियों को सोचे-समझे बिना खारिज मत करिए। खासकर यदि वह किसी प्यार में पड़ गए हो, तो यह कहकर कि तुम अभी सिर्फ 15 साल के हो, तुम क्या जानो असली प्यार क्या होता है, कहकर उन्हें उकसाइए मत कि वे असली प्यार की तलाश में एक्सपैरीमेंट करने निकल पड़े। यदि ऐसा हुआ तो वो आपको बहुत भारी पड़ेगा।
जब आप इस तरह से बात करते है तो किशोर अपने और आपके बीच पीढ़ी के अंतर को ले आता है, उसको लगता है कि आप उसे नहीं समझते। जब ऐसा होता है तो आप दोनों के बीच दूरियाँ बन जाती है। जिनको पाटने में काफी वक्त लग सकता है।
अपने बेटे और बेटी के साथ अपनी भावनाओं को शेयर करें ताकि उन्हें स्वयं को सुरक्षित और महत्वपूर्ण महसूस करने में सहायता मिले। यह वह समय है जब आप अपने किशोर को वैल्यू सिस्टम से अवगत कराएं। उसे समझाएं की जीवन में मूल्यों का क्या महत्व है और दुनिया में अपनी पहचान होना कितना महत्वपूर्ण है। उसके मन में खुद के लिए भी जितना सम्मान होना चाहिए उतना ही औरों के लिए भी होना चाहिए। अगर उनके ऊपर किसी भी तरह का अनावश्यक दबाव डाला जा रहा है चाहे वह सेक्स से संबंधित ही क्यों न उन्हें उसका खुलकर विरोध करना चाहिए, क्योंकि यह उम्र सेक्स सम्बन्ध स्थापित करने की नहीं है।
अंत में, आपकी कोशिश होनी चाहिए की आपका पारिवारिक जीवन स्वस्थ और स्थिर हो। अपने किशोर की गतिविधियों में आपकी दिलचस्पी हो, यह बात उसके अंदर आत्मविश्वास को बढ़ाएगी और वह और भी अच्छा करने का प्रयत्न करेगा। इसके विपरीत यदि घर का माहौल अच्छा नहीं होगा। माता-पिता के मध्य तनावपूर्ण संबंध होंगे, वे स्वेच्छाचारी होंगे या उनके विवाहेत्तर संबंध होंगे, तो किशोरवय बच्चों पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ेगा। तथा स्वस्थ परिवार की छवि का जो सकारात्मक प्रभाव उन पर पड़ना चाहिए, वह नहीं पड़ेगा उल्टे संभावित नुकसान हो सकता है।
स्वेच्छाचारी परिवेश से आने वाले किशोरों में यौन संबंध रखने का खतरा अधिक होता है। इसलिए आपका कर्तव्य बनता है की आपके परिवार के सदस्यों के मध्य स्वस्थ संबंध हों, अगर आपको लगता है कि आपका किशोर रास्ता भटक रहा है, तो यह आप पर निर्भर है कि एक पैरेन्ट् के रूप में, आप अपने किशोर को सही रास्ते पर लाने के लिए किस तरह के कदम उठाएंगे, उनके जीवन में सबसे अच्छा , सबसे अधिक विश्वसनीय और ईमानदार रोल मॉडल की भूमिका अदा करेंगे या उसके साथ उपेक्षित व्यवहार करेंगे। याद रखे की जो किशोर सेक्स संबंधित प्रश्नों के लिए अपने माता - पिता पर निर्भर करते हैं वो उतने ज्यादा यौन सक्रिय नहीं होते। क्योंकि उनकों अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए इधर-उधर भटकना नहीं पड़ता।
एक दिलचस्प अध्ययन के अनुसार जिन किशोरों का कोई रोल मॉडल नहीं था, वे सेक्स को लेकर अधिक सक्रिय थे। इसका मतलब यह है , अपने किशोरों के साथ एक स्वस्थ संबंध बनाने का यह एक हिस्सा है कि आप अपने किशोरों की बातों को ध्यान से सुने और उनसे सेक्स के बारे में भी खुल कर बात करें, भले ही वह उस समय आप से आँखें चुराए, लेकिन आपको ताज्जुब नहीं करना चाहिए यदि वे आगामी दिनों या हफ्तों में सेक्स संबंधित प्रश्न के लिए आपकी सलाह लेनी चाहें। शोधकर्ता , मॉन्ट्रियल विश्वविद्यालय में बाल रोग के प्रोफेसर , और कनाडा के बाल सोसायटी के अध्यक्ष के अनुसार - माता पिता उससे कहीं अधिक अधिक महत्वपूर्ण हैं जितना वे समझते हैं। किशोरावस्था स्वायत्ता की मांग करती है जो स्वाभाविक है। लेकिन माता - पिता की यह भूमिका है कि वे फिर भी रोल मॉडल बने रहें।