सिविल लाइंस के राजकरन सिनेमा मे "हर दिल जो प्यार करेगा" देखना तय हो चुका था। सिनेमा की टिकट तो खरीदे जा सकते थे तब राजकरन का बालकनी ५१ रुपये का हुआ करता था पर उसके बाद खाना भी खाना था, इंदुमती को ना नही कह पा रहा था महीने का आखिरी समय चल रहा था, अब घर से पढ़ायी के लिये तीन से चार हजार रुपये महीने ही मिलता था,अब उसमे कमरे का किराया और बाकी के खर्च भी तो थे अब इन सबके बाद, ये सिनेमा और उसके बाद खाना खाने का प्लान मुझे परेशानी मे डाल रहा था, इंदुमती को समझाने की कोशिश भी की कि फिल्म देखने के बाद खाना खाने मे वक़्त लगेगा और लॉज वापस आने मे देर हो जाएगी, पर वो किसी तरह मानने को तैयार नही थी, उसका कहना था की अगर मुझे देर से आने मे परेशानी है तो मैटनी शो देखते है, समझ आ गया था की अब जेब खाली होगी अब जरूरत थी किसी मददगार की जो कुछ रुपए दे सके, दूसरी तरफ फिल्म देखने के लिए किसी से पैसे मांगु ये मुझे बुरा लग रहा था, अजीब परिस्थितियों में फंस गया था,
उस दिन रात भर इसी उधेड़बुन मे रहा की अब कैसे करें राधा से भी नही कह पा रहा था की पैसे नही है, यही सब सोच रहा था नींद आ नही रही थी, तो पढ़ने के लिए बैठा ही था, सामने दीपक भाई के बायो के कुछ नोट्स मेज पर रखे थे मै लेकर आया था और जल्दी ही वापस करने के लिए भी बोला था पर काफी वक़्त हो गया था दीपक मेरे ही शहर से था, दीपक के पास हीरोपुक थ्रीजी भी थी। दोनों काम बनते समझ आ रहे थे। पैसे और बाइक दोनों मिल सकती है ।
अगले दिन सबेरे ही जल्दी तैयार होकर निकला, दीपक भाई बागम्बरी गद्दी मे रहते थे, अपनी रेंजर साइकिल से बागम्बरी पहुंचे दीपक भाई अपने घर के बाहर ही खड़े थे शायद चाय पीने के लिए निकले रहे होंगे, देखते ही बोले आओ भइया आओ कैसे आना हुआ, मै शर्मिंदा था उनकी नोट्स वक़्त पे वापस करने नही गया था जो, फिर दीपक भाई बोले आओ तुम्हें चाय पिलाते है, चाय पीते पीते उन्होने दुबारा पुंछा और बताओ कैसे आना हुआ कुछ चाहिए, दीपक भाई भी मेरी आदत से खूब परचित थे मै तभी उनके पास जाता था जब कुछ काम होता था, वैसे भी वो मुझसे बड़े थे,तो उनसे बाते भी कम ही होती थी, मै चुप ही रहा कैसे बात करूँ इसी उधेड़बुन मे लगा था, चाय पीने के बाद वापस दीपक भाई के घर की तरफ चलने लगे, अब पैसे और हीरोपुक मांगनी तो थी ही, पर कैसे बोलू , पहले ही मै उनकी नोट्स महीने भर बाद वापस की है ,किसी तरह हिम्मत जुटाई और हांथ फैला ही दिये, भाई कल कुछ काम है तो आपकी गाड़ी मिल जाएगी क्या वैसे भी कल तो इतवार है, दीपक भाई मुसकुराते हुये बोले तो ये बात है तभी तो मै सोच ही रहा था की तुम आज कैसे दर्शन दे गए यार कुछ काम तो था, अच्छा कितनी देर चाहिए, मै बोला दोपहर वही एक डेढ़ बजे तक, कस मे कौनों सिनेमा जाना है का दीपक भाई ने पूछा, मै जवाब मे चुप ही रहा और अगली मांग रख दी भाई कुछ पैसे भी चाहिए घर जाना है एक दो दिन मे तो कुछ समान भी लेना है, कितना चाहिए दीपक भाई बोले पाँच सौ, ठीक है ले जाना तो पैसे अभी तो नही चाहिए, मैंने कहा नही भाई कल ही दीजिएगा । अब दीपक भाई ने आस्वास्थ कर दिया तो झूमता हुआ वापस लॉज आ कर शाम का इंतजार करने लगा ।
उयाध्याय ने आज कुछ पुरबियों को इक्ट्ठा कर रखा था, बाटी चोखा बना था, वैसे इलाहाबाद मे बाटी चोखा बनता नही था उसका तो प्रोग्राम होता था तो उसी प्रोग्राम मे हम भी शामिल हो लिए, ऐसे प्रोग्रामों की मेरी खोज जारी ही रहती थी साल मे कोई मुश्किल से २५ से ३० दिन का खाना ही मै अपने कमरे मे बनाता था, बाकी का ऐसे ही प्रोग्राम जीने का सहारा बन गए थे, उपाध्याय की बाटी खाते वक़्त तारीफ तो करनी पड़ती थी। "उपाध्याय जी बाटी तो सिर्फ आप ही बनाते है वैसे खाने के मामले मे पुरबियों का जवाब नही" बस इतना बोलते ही दो तीन दिन का खाना मुफ्त हो जाता
खाने के बाद कमरे मे किताबें पलटता रहा घड़ी मे चार बजे थे चाय पीने की इच्छा तीब्र हो रही थी चाय की दुकान अपने लिए मधुशाला जैसी ही थी उस वक़्त तक मधुशाला को लेकर अपनी सोच मे बच्चन साब की मधुशाला से मेल खाती थी चाय की दुकान मे चाय की चुस्की के साथ जगजीत सिंह की गज़ल "वो घड़ी दो घड़ी जहाँ बैठे वो जमीं महके वो शहर महके'' कुछ अलग ही मज़ा दे रही थी,गज़ल सुनते सुनते ही पास के बूकस्टॉल चला गया ये वही जगह थी जहाँ इंदुमती मुझे पहली बार मिली थी, किताबें देखते हुये अमृता प्रीतम का "कोरेकागज़" हांथ मे आ गया, कुछ देर किताब को देखता रहा फिर बंद कर दी एक डर सा आया मन मे की अगर किताब पड़ी तो कल सिनेमा नही जा पाऊँगा, बूकस्टॉल वाले से कोरेकागज़ कागज़ ले लिया और पुंछा की भइया कोई और नया तो नही जो ना पढ़ा हो और कुछ हल्का हो थोड़ा रोमांस के साथ, तो उसने लौलिता पकड़ा दी तब तक लौलिता पढ़ी नही थी पर किताब अच्छी नही है ये जरूर सुना था तभी से कुछ जिज्ञासा भी थी इसे पढ़ने की अब हांथ मे थी तो लेना ही मुनासिब लगा सोचा की देखते है क्या बुरा है इस किताब मे तब तक इंदुमती भी आ गयी थी
इन्दुमति के साथ फिर चाय की दुकान चाय पीते पीते ही कल सिनेमा जाने की योजना पर बात करने लगे और ईवनिंग शो का तय हुआ, और इंदुमती को बताया की दीपक भाई की हीरोपुक है, उसी से चलेंगे, इंदुमती बोली रिक्शे से ठीक रहता क्यु किसी दूसरे से मांगते हो रिक्शे से ही चले चलेंगे, चाय वाले को इंदुमती ने पैसे दिये और घर चल दिये तो कल शाम पाँच बजे मिलते है, कह कर इंदुमती से विदा ली, और अपने कमरे मे पहुँच गया, खाना बनाने का मन नही था तो उपाध्याय जी की तारीफ करने ही पहुँच गए, भाई उपाध्या जी आपका जवाब नही बाटी मस्त बनाते हो अब रात मे क्या खिला रहे हो, उपाध्याय भी ये सब समझने लगा था तो टपक से बोला "चोरय हो का मे" रोज़ बना बनाया पेल के सो जाते हो आज खाना है तो बर्तन धोने पड़ेंगे, मुझे भी खाना बनाने से बेहतर बर्तन धोना ही लगता था सो हाँ कर दिया, वैसे इसके सिवा कोई चारा भी नहीं था सबेरे उपाध्याय के जो भी मित्र आए थे सब खाना खा कर खिसक गए थे बेचारे को सब बर्तन अकेले ही धोने पड़े थे। रात मे खाने के बाद बर्तन धो कर, कुछ देर अपने सबजेक्ट देखता रहा और जब नींद आने लगी तो लोलिता खोल कर बैठ गया कुछ ही देर पड़ा इतनी बुरी भी नही थी जितना सब चिल्ला रहे थे चेतन भगत की किसी भी किताब से तो बेहतर ही था ये अलग बात है की चेतन भगत को मै जनता भी नही था और अब जान के जानना नही चाहता ।
अगली सुबह इतवार की थी ऐसा लग रहा था की इस सुबह का इंतज़ार मुझे बहुत लंबे वक़्त से है । काफी दिनों बाद उस दिन जल्दी ही उठ गया था, जब गाँव मे रहता था तो बाबा जी चिल्लाते थे की कभी उषा की लाली भी देखी है क्या तो उस दिन उषा की लाली देखने के लिए सबेरे ही छत पहुँच गया और बादल बेवफाई कर गए उषा की लाली तो दिखी ही नही रवि (सूरज) के भी दर्शन नही हुये निराशा के साथ काफी देर तक छत मे टहलता रहा अब इंतज़ार था तो सूरज के क्षितिज की तरफ जाने का वापस कमरे मे आकर पढ़ने लगा वही लगभग दो बजे के आस पास दीपक भाई से मिलने बगम्बरी निकाल गया।
बगम्बरी जाते वक़्त रास्ते मे कई बार मन परेशान था की अगर दीपक भाई नही मिले तो क्या करूंगा उस वक़्त मेरे पास सिर्फ २५० रुपए बचे थे अब उसमे किस तरह सिनेमा, खाना आने जाने के रिक्शे के पैसे कैसे होगा। ये सब सोच ही रहा था की दीपक भाई मिल जाये कहीं गए न हो, दीपक भाई घर मे ही मिल गए और बिना ज्यादा वक़्त लिए ही हीरोपुक की चाभी दी और बोले "ध्यान से बेटा ई थ्रीजी है" दो गियर वाली हीरोपुक ना समझना हाँ कितना रुपया चाहिए पाँच सौ मे काम चल जाएगा मै कुछ बोला नही बस पैसे और थ्रीजी लेकर निकल लिया, अब अपने चौराहे पर आकर चाय पीने लगा चाय क्या पीना था अब तो इंदुमती के आने का इंतज़ार था, चाय पी ही रहा था की इंदुमती आ गयी यही कोई पाँच सवा पाँच का वक़्त रहा होगा हम सिविल लाइंस के लिए निकल लिए।

राजकरन पहुँच कर टिकट लेने के लिए लंबी लाइन देख कर इंदुमती बोली तुम रुको मै टिकट लेती हूँ, मै टिकट के लिए पैसे निकाले तो इंदुमती बोली की मै दे रही हूँ ना तो क्यु परेशान हो, टिकट लेने के बाद शो मे काफी वक़्त था तो हम कॉफी हाउस चले गए, वही अम्बर कॉफी मे सड़क किनारे ही कुर्सी डाल कर बैठ कॉफी आने का इंतज़ार कर रहे थे इन्दुमति उस दिन सुर्ख़ लाल रंग का कुर्ता जिसमे सफ़ेद रंग की कुछ आड़ी तिरछीलाइने खिची हुई थी उसके नीचे सफ़ेद रंग की चूड़ीदार सलवार पहने थी सलवार की पैर के पंजे पर पड़ी सलवटें गोरे पैरों पर काले रंग की साधारण सी चप्पल , जालीदार सफ़ेद चुन्नी जो हवा हर बार अपने साथ उड़ा ले जाना चाहती थी बेतरीबी से बंधे बाल हर बार मांथे को चूम रहे थे, और इंदुमती हर बार उन्हे हटा कर अपने कान के पास कैद कर देती पर जैसे वो कैद मे रहना ही नही चाहते थे हर समय मांथे के साथ साथ होंठो पर भी अपनी मौजूदगी का एहसास करा जाते, इंदुमती को देख कर लग रहा था की यही सौंदर्य का चरम है, जिस तरह वो बार बार हवा मे उड़ रही अपनी चुनरी संभालती कभी अपने बालों को कान के ऊपर फंसा देती इस बेतक़्लुफ़ी के साथ भी कितना आत्म विश्वास था उसके चेहरे पर नज़र एक पल के लिए भी हटाने का मन नही कर रहा था, इतने मे कॉफी वाला कॉफी लेकर आया और मै इंदुमती के चेहरे पर ही खोया था जाने क्या ढूंढ रहा था जैसे उस दिन सब कुछ जान लेना चाहता था, इंदुमती ने कॉफी लेते हुये जैसे मुझे नींद से जगाया, मै थोड़ा झेपते हुये कॉफी पकड़ी इंदुमती बोली क्यु जी कहाँ खो जाते हो, अभी प्रीती ज़िंटा के डिम्पल देखना, मै चुप चाप कॉफी पिता रहा जैसे कोई चोर चोरी करते पकड़ा गया हो, कॉफी पीने के बाद हम राजकारन पहुंचे मैंने स्टैण्ड मे थ्रीजी खड़ी की और हॉल मे पहुंचे तो फिल्म शुरू हो चुकी थी.....................
क्रमश;..........