कुछ जोगाड़ कर देव यार
इंदुमती की तीसरी क़िस्त
फ्रेंडशिपडे के बाद मैने फिर रूम से निकलना बंद कर दिया था। एक अजीब सा डर जो सिर्फ महसूस किया जा सकता "जैसे आप किसी की कोई चीज चुरा रहे हों और वो देख कर अनदेखा कर जाय और आपसे कुछ न बोले'" कई बार मन करता की कोई किताब ले आऊँ शाम की चाय भी बंद थी सब्जी भी उपाध्याय ही लाता था । बस कमरे मे पड़ा रहता था उपाध्याय को लगता की आज कल कुछ ज्यादा ही काहिल हुआ जा रहा हूँ उसी का बनाया खाना भी खाता हूँ और रौब भी गांढता हूँ , अब कई दिन हो चुके थे इस बार इंदुमति भी एक भी दिन नही आई ना ही खाना भिजवाया।
एक हफ्ते तक कमरे मे रहने के बाद इतवार को शिवकुटी जाना था, वहाँ "धर्मवीर भारती फैंसक्लब" की बैठक थी ये क्लब हमही कुछ दोस्तो ने मिलकर बनाया था जिसके दस नियमित सदस्य बाकी की संख्या घटती बढ़ती रहती थी आम तौर पर पंद्रह से बीस सदस्य रहते थे जो प्रतिमाह 20/- की शुल्क जमा करते थे और उन रुपयों से किताबे आती थी तो सभी कितबिया चरसी उसे पड़ते थे अब किताबे थोड़ा महंगी थी तो ये तरीका निकाला था क्लब की शुरवात मै और आशीष ने की थी बाद मे और लोग मिलते गए वैसे क्लब का एक उद्देश्य और भी था वो की हम सभी पाठक के साथ लेखक बनने के लिय भी उत्साहित रहते थे । तो जो भी उल्टी सीधी कविताए कहानियाँ लिखते तो वो भी वहाँ सुनाई जाती, और सभी को एक स्वर मे तारीफ करनी पड़ती चाहे बाद मे लाख कमियाँ निकले या निकाली जाए ।
शिवकुटी वाली बैठक मे भी जाने का मन नही था पर सोचा की इलाहाबाद मे रह कर अगर नही जाता तो भी ठीक नही है, और जाने का एक फायदा ये भी है की कुछ नया मिल जाएगा पिछली बैठक मे ही रेणु का उपन्यास ""कितने चौराहे"" मंगाया गया था तो उसे अभिषेक ने ले लिया था, अभिषेक विश्वविध्यालय का छात्र था खाँटी पुरबिया कोई भी किताब आए पहले वही ले जाता फिर पढे या ना पढे पर नयी किताब पर पहला हक़ उसी का था, रेणु की रचनाएँ मुझे पसंद थी तो "कितने चौराहे" की चाह मे ही शिवकुटी चला गया, बैठक हुयी सबने क्या पढा इस पर चर्चा हुयी कुछ कविता कहानियों का पाठ हुआ एक कविता अभिषेक ने लिखी थी विभाजन के दर्द के साथ सबने तारीफ की कुछ कमियाँ थी पर मै बोल भी नही पाया अगर कुछ कहता तो यही होता की "एको ठो लिखे हो का मे जाऊन लिखत है बस वही का पेलो" अब तारीफ इतना हो गयी थी की अभिषेक बाबू अपने को धर्मवीर भारती समझ लेहीन, इतने मे ही आशीष बोला की यार ये छपने लायक है कौनों अखबार मे कुछ जोगाड़ कर देव यार, इसी मुद्दे को लेकर काफी देर तक गहमागहमी फिर सब वैसे ही, और उस दिन क्या उस क्लब की कभी कोई कविता या कहानी कही नही छपी, बैठक समाप्त हो चुकी थी मै भी किताब ले कर शिवकुटी से ही गंगा किनारे चला गया
गंगा के तेज मटमैले बहाव को देख कर अजीब सी उलझन हो रही थी जिसे पूरा हिंदुस्तान पवित्र अमृत मानता है वो पानी मै कभी ना पीयू, गंगा शांत पूरे वेग से अपने गन्त्ब्य के लिए दौड़ रही थी जैसे वो भी यहाँ रहना नही चाहती इस दुनिया से तंग आ चुकी है किनारे मे कौन उसे क्षतविक्षत कर रहा उस पर वो ध्यान ही नही देगी। कितने पापी अपना पाप गंगा के सर मढ़ना चाहते है, ये सब गंगा अनदेखा कर रही थी और युगों से इस गंदगी से दूर जाना चाहती है पर जा नही पाती, गंगा माँ है और मै उससे अपना रिश्ता समझना चाहता था, पर वो बराबर भाग रही थी ये कैसा रिश्ता था, इंदुमति कहती थी की रिश्तो को ले कर मेरी समझ कमजोर है शायद तभी मै अपने और गंगा के रिश्ते को समझ नही पाया, पर एक संतुष्टि मन मे हमेशा है की जब भी दुनिया से थक जाऊंगा बीमार रहूँगा तो गंगा माँ के पास ही जाऊंगा वो अपनी गोद मे जगह जरूर देगी और अपने साथ ले जाएगी यही सब सोचते शाम हो गयी थी, गंगा किनारे से चलते हुये शिवकुटी चौराहे मे आकर चाय पीने लगा तभी पीछे आशीष ने आवाज़ दी 'कस मे कहाँ अल्लापुर नही गए का' नही बस यही गंगा किनारे चला गया था, कुछ टेंशन आशीष ने पूछा मै बोला नही बस कुछ मन भारी है कुछ अच्छा नही लग रहा, आज यही रुको कल जाना और चलो सीनेमा दिखाते है। चाउचक सिनेमा है अवतार मा रामगोपाल वाला जंगल और उर्मिला इतना कह कर अपनी बत्तीसी दिखा दी
तेलियरगंज मे वही एक सिनेमाहाल था ही लोगो का तो पता नही पर रामगोपाल वर्मा की फिल्मे मुझे ठीक लगती थीं, जब भी कोई नयी फिल्म रिलीज़ होती तो वह पूरा शहर घूम कर आखिर मे अवतारसिनेमा मे लगती थी, जंगल भी मुझे औसत ही लगी, सिनेमा देख कर वापस आए तो रात तीन बजे तक बाटी चोखा का कार्यक्रम चलता रहा, बाटी चोखा एक एसी परम्परा के साथ बनता की जैसे उसे अकेले खाना अपराध हो और ये प्रयाग की धरती मे संभव नही है, जब भी किसी के यहाँ बाटी चोखा बनता तो पड़ोसी उस दिन उसी के यहाँ खाना अपना धर्म समझते हो, उस रात आशीष के साथ जैसे कुछ आत्मबल फिर बढ गया था ।
अगली सुबह जल्द ही अल्लापुर आ गया और राधा (इंदुमति) से मिलने की योजनाओ मे शोध चल रहा था, शोध का परिणाम यह रहा की कुछ नही समझ आया तो सीधा इंदुमति के घर ही पहुँच गया डोरवेल बजाने पर मित्तल साब की पत्नी ने दरवाजा खोला अभिवादन ने हांथ जोड़ते हुये मैंने पूछा राधा है क्या.? इतना कह कर वो चली गयीं कुछ देर मे राधा आई और बोली क्या है...? मेरे पास उसके सवाल का कोई ठीक सा जवाब नही था तब भी मैंने उसे कहा तैयार हो कर आओ कटरा चलना ही और मिसेज़ मित्तल से बताना की शाम को देर हो जाएगी ।
वापस आ कर अपनी बालकनी मे खड़े राधा का इंतज़ार कर रहा था, राधा गली मे आती दिखी तो तो मै भी बालकनी से नीचे आ गया था, इंदुमति को देख कर ऐसा लग रहा था जैसे वो बादलों से उतर के आ रही हो, उस दिन इंदुमति ने सफ़ेद चूड़ीदार सलवार के साथ कुछ दीला सा गुलाबी कुर्ता और सफ़ेद चुन्नी पैरो मे बादामी रंग की चप्पल ये सब मुझे एक कवि की कल्पना की तरह लग रहा था हम दोनों साथ साथ चल दिये और बिना कुछ बोले मै उसे पूरी तरह जान लेना चाहता था चौराहे मे आकार रिक्शा लिया और आगे चल दिये रिक्शे मे बैठते वक़्त भी ना रिक्शे वाले ने कुछ पूछा ना राधा ने एक समर्पण सा भाव था रिक्शा वाला भी सीधी दिशा मे चलता रहा और आगे जा कर पुराने साकेत आस्पताल के पास ही रिक्शा छोड़ दिया
रिक्शे से उतरने के बाद इंदुमति ने पुंछा अब रिक्शा क्यु छोड़ दिया कटरा चलना था ना, बिना कुछ बोले ही मैंने कहा चाय पीते है, कैफे से कुछ नोट्स ले कर चलते है, खाने के लिए वहीं कटरा मे देखते है, नोट्स ले कर पैदल ही विश्वविद्धयालय की तरफ चल दिये, चलेते हुये मैंने कहा कहाँ थी इंदुमति इतने दिन कुछ पता नही चला तुम्हारा आज जब हफ्ते भर से ज्यादा हो रहा था तो सोचा की घर जा कर बुला लूँ घर चली गयी थी अभी कल ही तो आई हूँ इंदुमति बोली, तभी तो मै रोज शाम चौराहे पर इंतज़ार करता था की शायद तुम कोई अंडे लेने ही आओ पर तुम्हारा पता नही था, इसके बाद जो हुआ वो मैंने सोचा भी नही था, इंदुमति रुक गयी और मेरी तरफ देखते हुये बोली ओ तुम रोज शाम इंतज़ार करते थे,उसकी आंखे सुर्ख हो चुकी थी क्रोध साफ समझ आ रहा था,इंदुमति बोली की मुझे लगा की तुम ईमानदार हो पर तुम झूठे बेईमान हो तुम्हें दूसरों को तकलीफ देने मे मज़ा आता है, रोज शाम इंतज़ार तुमने नही मैंने किया है, और जब पता चला की तुम अपने कमरे हो, तब भी तकलीफ हुई थी पर फिर भी इंतज़ार किया कल इतवार था तो तुम्हारे रूम मे भी पता किया तो तुम शिवकुटी गए थे, किसी से कितना झूठ बोलोगे और कितनी तकलीफ दोगे अमित और इन सबके बाद भी हम साथ मे जा रहे है, अब तुम बिना कुछ बोले चलते चलो यही बेहतर है।
कुछ दूर और चलने के बाद रिक्शे वाले को आवाज़ दी "कंपनी बाग चलबों" कंपनी बाग पहुँच कर वही एक पेड़ के नीचे फैल गया, इंदुमति भी कुछ सामान्य थी हम दोनों मे से कोई उस सन्नाटे को जैसे तोड़ना नही चाहता था, उस दिन इंदुमति रोज़ से ज्यादा सुंदर लग रही थी आज उसने बालों को कुछ डीला बांध रखा था इसके बाद भी कुछ बाल हवा के साथ उड़ जाना चाहते हों, मैंने इंदुमति को पास आ कर बैठने के लिए कहा तो वो और पीछे खिसकते हुये अपनी चुन्नी ठीक करने लगी, मै बोला अब भी नाराज़ हों माफ नही करोगी, वो बोली नाराज़ ही कब थी जो बात माफी की हों मै तो बस इतना चाहती हूँ की हम दोनों के बीच ऐसा कुछ ना हों की माफी जैसे शब्द को बीच मे आना पड़े उस दिन हम दोनों के बीच काफी बातें हुई जैसे दोनों की पसंद ना पसंद पे बात हुयी और कुछ आ लिखित समझौते भी हस्ताक्षर किए गए, जैसे हम दोनों मे कोई भी बिना बताए कहीं नही जाएगा कम से कम इलाहाबाद तो बिना बताए बिलकुल भी नही छोड़ेगा। और अगले इतवार को सिनेमा देखने भी चलेंगे सिनेमा का शौक़ हम दोनों को था ।
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