कम्पनी बाग
इंदुमती की चौथी किस्त
उस दिन कंपनी बाग हम दोनों के बीच तमाम अलिखित अनबोले शब्दों का साक्षी बना था, कंपनी बाग आज भी इलाहाबाद मे एक लंबे इतिहास का साक्षी ही तो है, रोज जाने कितने लोग है जो वहाँ टहलने जाते है और बिना कंपनी से पूछे ही वापस हो लेते है, कितना कुछ है जो उसके सीने मे दफन है, कभी पूछिएगा उससे उसका दर्द उसका इतिहास बहुत कुछ बताता भी है । कंपनी बाग आज़ाद से लेकर आज तक बहुत से ऐसे विषय है जिनके विषय मे सिर्फ सच उसी को पता है, तो आज हमने उसी को साक्षी बना लिया था।
बात करते करते काफी वक़्त गुजर गया था यही कोई चार या पाँच का वक़्त हो रहा होगा, इंदुमति अल्लापुर चलने के लिए बोल रही थी पर मै था की वही पसरा रहा मेरा कहीं जाने का मन ही नही हो रहा था, आसमान मे काले बादल छा रहे थे, बहुत खुशनुमा मौसम था घास का लंबा चौड़ा मैदान घने पेड़ों की छाव जो अब धीरे धीर फैल रही थी पता ही नही चल रहा था की पेड़ अपनी छाया बड़ा कर हम दोनों को पास लाना चाह रहे थे की बादल हर तरफ अंधेरा करके फिर हमे दूर करने की चाले चल रहा था, पर मै बस इंदुमति चेहरे से नज़र नही हटाना चाहता था, इंदुमति इस बार चलने के लिए खड़ी होती हुई और मेरे नजदीक आकर बोली चलो अमित चलना है की नही, मै एकटक उसे देखता रहा और जब वो मेरे क़रीब आ गयी तो इंदुमति का हांथ पकड़ कर मैंने उसे बैठने को कहा इंदुमति मेरे पास ही बैठ गयी, बोले क्या है चलो न देर हो रही है, मै इंदुमति को देखता रहा और
"गुनाहों के देवता की एक लाइन" बोला मेरी इंदुमति,
"बादशाहों की मुअत्तर ख्वाबगाहों मे कहाँ
वो मज़ा जो भीगी भीगी घास मे सोने मे है"।
"मुतमइन बेफिक्र लोगों की हंसी मे भी कहाँ
लुफ्त जो एक दूसरे को देखकर रोने मे है"।।
इंदुमति चुप सी हो गयी कुछ देर के लिए एक गहरी खामोशी हुई हवाओ की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही थी, बीच बीच मे शाम को टहलने वालो के क़दमो की आवाज़ उस खामोशी को तोड़ जाती और इंदुमति सपनीली मुस्कुराहट के साथ बादलों को देख रही थी, इंदुमति मेरी राजकुमारी
"कैफ बरदोश, बादलों को ना देख,
बेखबर तू न कुचल जाय कहीं"।
फिर इंदुमति उसी ख़ामोशी के साथ मेरी तरफ मुखातिब हुई, और जैसे हम एक दूसरे की आंखो मे कुछ ढूंढ रहे थे, और आज ही जान लेना चाहते थे की आने वाला वक़्त क्या होगा ?, इंदुमति कुछ देर तक वैसे ही देखती रही फिर थोड़ा पीछे जा कर बेतरीबी से वही घास मे लेट गयी और हम बिना कुछ बोले ही कुछ एक दूसरे से कहते रहे, लाइट जल चुकी थी शाम के सात बजे रहे होंगे, हम दोनों नाजरेथ अस्पताल के सामने वाले गेट से निकले वहाँ रिक्शा आसानी से मिल जाता था।
हम अल्लापुर आ गए चौराहे मे चाय पी इंदुमति ने अंडे लिए तब तक मै भी अपने लिए सब्जी ले चुका था, इंदुमति भी सब्जी की दुकान मे आ कर सब्जियाँ लेने लगी सब्जी लेकर हम अपने अपने आशियाने के लिए चल दिये, पर मेरा मन इंदुमति से दूर होने का नही था, पर जाना तो था ही
भारी कदमों से लॉज की सीढ़ियाँ चढ़ता गया, ऐसा लग रहा था जैसे अपना गाँव छोड़ कर पहली बार कही दूर जा रहा हूँ ।
कमरे मे लेटा हुआ मस्तिस्क और दिल के द्वंद से जूझ रहा था। मै खुद नही जान पा रहा था की मै चाहता क्या हूँ, और कहाँ जाने को तैयार हूँ, इसी बीच उपाध्याय अपने चिरपरिचित अंदाज़ मे 'कस मे खाना खाबों की कुंभकरन के नै फैले रहबों' मेरा आज उपाध्याय के किसी सवाल का जवाब देने का मन नही था । पर मै ऐसा कर ही नही सकता था उपाध्याय भी महारथी था जब तक उठ ना जाऊँ और इसी महारथी की वजह से मै कई बार खाली पेट सोने से बच जाता था। उपाध्याय था बहुत कलाकार हमेशा बर्तन मुझी से साफ करवाता था, बर्तन तो किसी तरह साफ कर ही लेता पर खाना बनाने से बचता रहता था, उपाध्याय जौनपुर के किसी गाँव का खाँटी पुरबिया था। हाँ वो ये बताना कभी नही भूलता था की उसका गाँव उसी गाँव के पास है जहां "नदिया के पार" सिनेमा की शूटिंग हुयी थी, उपाध्याय को किताबों से कोई खास लगाव नही था वो वही पढ़ता था जिसे पढ़ने के लिए वो इलाहाबाद आया था इसके बाद भी एक उपन्यास उसके पास था "कोहबर की शर्त" तभी मुझे पता चला था की नदिया के पार फिल्म का यही आधार था, ये अलग बात है की उस किताब को मै आज तक पढ़ नही पाया। उपाध्याय रात मे किताब पढ़ने को देता और सुबह जब मै नहाने जाता तो इसी बीच वो अपनी किताब ले जाता, ख़ैर आज याद आई है, तो अब पढ़ लेंगे।
उस दिन खाना खाने के बाद, रेणु के "कितने चौराहे" मे उलझ गया आज़ादी के आस पास का बिहार जब गाँव से शहर के बीच का मानो भाव बस वो किताब ऐसी मिली की काफी सारे द्वंद रेणु के चक्रव्यूह मे फंस कर रह गए। अब मन मे किताब को लेकर उत्सुकता बढ रही थी की अचानक बिजली चली गयी शाम को मामूली बूँदा बाँदी भी हो गयी थी तो थोड़ा उमस बड़ी थी, बिजली के इंतज़ार मे काफी देर तक कमरे मे ही पसरा रहा, बालकनी से लड़को की आवाज़े आ रही थी सब अपने अपने कमरों से बाहर आ चुके थे, मेरे जैसे कुछ ही काहिल किस्म के रहे होंगे जो इतनी गर्मी मे भी कमरे से बाहर नही निकलते, तभी राजू ने आवाज लगाई अरे सर जी बाहर आइये देखिये एकदम मस्त हवा चल रही है, "राजू वर्मा चंदौली का था उसके पिता जी कृषि विभाग मे अफसर थे जब वो इन्हे पहली बार यहाँ छोड़ने आए थे तब मेरी मुलाकात हुयी थी उनसे" राजू के बुलाने पर लगा की काहिलपन छोड़ कर बाहर जाना चाहिए प्राकृतिक हवा का भी आनन्द लिया जाय किताब पढ़ने से उस हवा को नही समझा जा सकता,
बाहर सब कोई न कोई चुटकुला या कोई घटना इन्ही सब मे लगे रहे मै भी उपाध्याय जी से पूर्वाञ्चल की दबंगई की तमाम कहानियाँ सुनता रहा। मामला तो कई बार ऐसा हुआ की अजय रॉय, मुख्तार, शाहबूद्दीन, सब कहीं ना कहीं हमारे उपाध्याय जी के कृपा के पात्र थे इन सब का जीवन बचाने वाला और कोई नही हमारे पुरबिया उपाध्याय जी ही थे, माफ़िया को लेकर मेरा काफी ज्ञानवर्धन होता रहा
अगस्त की वो शाम बहुत भारी लग रही थी दोपहर मे झमाझम बारिश के बाद भी गर्मी अपने शबाब पर थी । उदास सी शाम थी क्षितिज की लाली भी स्याह होने लगी थी बादल सांस रोके पड़े थे जो तारे टिमटिमाने के लिए बेताब थे उनका भी दम काले बादलों के डर से घुट रहा था, आज समझ आ रहा था की पंछी कितने आज़ाद होते है कही भी जा कर किसी भी छत पे बैठ सकते है पर मै तो इंदुमति से मिलने उसके लॉज भी नही जा सकता था वहाँ आने के लिए भी उसने मना किया था बोला था जब कोई जरूरी काम हो तभी आना अब कैसे कहता की दो दिन से तुम्हें देखा नही है और दो दिन ना तो सब्जी लेने आती है और कोचिंग का वक़्त ऐसा था की उसी टाइम मुझे भी अपनी कोचिग जाना पड़ता था यही सब सोच रहा था की अगर आज नही आती तो घर जा कर ही मिलने के लिए बोल दूँगा, और कहूँगा की सब्जी रोज लिया करो बासी खा कर बीमार हो जाओगी, इतवार को फ़िल्म देखने तो जाना है कौन सी और कितने समय कुछ बताया नही है फिर बाद मे आंखे दिखायेगी ये नही वो वाली देखनी थी, यही सब सोचते हुये सिगरेट सुलगा रहा था, जैसे ही सिगरेट फेंकने के लिये पीछे मुड़ा तो देखा की राधा किताबों की दुकान मे कुछ ले रही थी, मै पास जाकर धीरे से बुलाया "इंदुमति इंदुमति"
राधा ने पलटते ही कहा सिगरेट खत्म हो गयी, तुम भी अंडे नही खाते सिगरेट पीते हो, अरे छोड़ो भी राजकुमारी अब ये बताओ पिछले दो तीन दिन से दिखी नही क्या कोई परेशानी है, राधा ने ना मे सिर हिला दिया और चाय की दुकान की तरफ बढ गयी मै भी उसके साथ चल दिया, चाय पीते पीते सिनेमा जाने के लिए बात करने लगा अब फिल्म को लेकर दोनों मे टकराव जैसी स्थिति बन सकती थी अगर मै उसकी बात न मानता, मुझे लग रहा था की सतीश कौशिक की "हमारा दिल आपके पास है" देखे उसे ना देखने के उसके पास दो बहाने थे एक तो उसे यह फिल्म से सीरियस फिल्म लग रही थी दूसरी की इसके लिए संगीत सिनेमा मुट्ठीगंज जाना पड़ता, तो उसका जो विकल्प था वो मै नही देखना चाहता था पर देखना पड़ा, इंदुमति के आदेशनुसार हमे सिविल लाइंस राजकरन टाकीज़ मे "हर दिल जो प्यार करेगा" देखनी थी और वहीं खाना खा कर आना है, अब इसके लिए अगर कोई बाइक मिल जाएगी तो सब सही हो जाता,,,,,,,,,
बात करते करते काफी वक़्त गुजर गया था यही कोई चार या पाँच का वक़्त हो रहा होगा, इंदुमति अल्लापुर चलने के लिए बोल रही थी पर मै था की वही पसरा रहा मेरा कहीं जाने का मन ही नही हो रहा था, आसमान मे काले बादल छा रहे थे, बहुत खुशनुमा मौसम था घास का लंबा चौड़ा मैदान घने पेड़ों की छाव जो अब धीरे धीर फैल रही थी पता ही नही चल रहा था की पेड़ अपनी छाया बड़ा कर हम दोनों को पास लाना चाह रहे थे की बादल हर तरफ अंधेरा करके फिर हमे दूर करने की चाले चल रहा था, पर मै बस इंदुमति चेहरे से नज़र नही हटाना चाहता था, इंदुमति इस बार चलने के लिए खड़ी होती हुई और मेरे नजदीक आकर बोली चलो अमित चलना है की नही, मै एकटक उसे देखता रहा और जब वो मेरे क़रीब आ गयी तो इंदुमति का हांथ पकड़ कर मैंने उसे बैठने को कहा इंदुमति मेरे पास ही बैठ गयी, बोले क्या है चलो न देर हो रही है, मै इंदुमति को देखता रहा और
"गुनाहों के देवता की एक लाइन" बोला मेरी इंदुमति,
"बादशाहों की मुअत्तर ख्वाबगाहों मे कहाँ
वो मज़ा जो भीगी भीगी घास मे सोने मे है"।
"मुतमइन बेफिक्र लोगों की हंसी मे भी कहाँ
लुफ्त जो एक दूसरे को देखकर रोने मे है"।।
इंदुमति चुप सी हो गयी कुछ देर के लिए एक गहरी खामोशी हुई हवाओ की आवाज़ साफ़ सुनाई दे रही थी, बीच बीच मे शाम को टहलने वालो के क़दमो की आवाज़ उस खामोशी को तोड़ जाती और इंदुमति सपनीली मुस्कुराहट के साथ बादलों को देख रही थी, इंदुमति मेरी राजकुमारी
"कैफ बरदोश, बादलों को ना देख,
बेखबर तू न कुचल जाय कहीं"।
फिर इंदुमति उसी ख़ामोशी के साथ मेरी तरफ मुखातिब हुई, और जैसे हम एक दूसरे की आंखो मे कुछ ढूंढ रहे थे, और आज ही जान लेना चाहते थे की आने वाला वक़्त क्या होगा ?, इंदुमति कुछ देर तक वैसे ही देखती रही फिर थोड़ा पीछे जा कर बेतरीबी से वही घास मे लेट गयी और हम बिना कुछ बोले ही कुछ एक दूसरे से कहते रहे, लाइट जल चुकी थी शाम के सात बजे रहे होंगे, हम दोनों नाजरेथ अस्पताल के सामने वाले गेट से निकले वहाँ रिक्शा आसानी से मिल जाता था।
हम अल्लापुर आ गए चौराहे मे चाय पी इंदुमति ने अंडे लिए तब तक मै भी अपने लिए सब्जी ले चुका था, इंदुमति भी सब्जी की दुकान मे आ कर सब्जियाँ लेने लगी सब्जी लेकर हम अपने अपने आशियाने के लिए चल दिये, पर मेरा मन इंदुमति से दूर होने का नही था, पर जाना तो था ही
भारी कदमों से लॉज की सीढ़ियाँ चढ़ता गया, ऐसा लग रहा था जैसे अपना गाँव छोड़ कर पहली बार कही दूर जा रहा हूँ ।
कमरे मे लेटा हुआ मस्तिस्क और दिल के द्वंद से जूझ रहा था। मै खुद नही जान पा रहा था की मै चाहता क्या हूँ, और कहाँ जाने को तैयार हूँ, इसी बीच उपाध्याय अपने चिरपरिचित अंदाज़ मे 'कस मे खाना खाबों की कुंभकरन के नै फैले रहबों' मेरा आज उपाध्याय के किसी सवाल का जवाब देने का मन नही था । पर मै ऐसा कर ही नही सकता था उपाध्याय भी महारथी था जब तक उठ ना जाऊँ और इसी महारथी की वजह से मै कई बार खाली पेट सोने से बच जाता था। उपाध्याय था बहुत कलाकार हमेशा बर्तन मुझी से साफ करवाता था, बर्तन तो किसी तरह साफ कर ही लेता पर खाना बनाने से बचता रहता था, उपाध्याय जौनपुर के किसी गाँव का खाँटी पुरबिया था। हाँ वो ये बताना कभी नही भूलता था की उसका गाँव उसी गाँव के पास है जहां "नदिया के पार" सिनेमा की शूटिंग हुयी थी, उपाध्याय को किताबों से कोई खास लगाव नही था वो वही पढ़ता था जिसे पढ़ने के लिए वो इलाहाबाद आया था इसके बाद भी एक उपन्यास उसके पास था "कोहबर की शर्त" तभी मुझे पता चला था की नदिया के पार फिल्म का यही आधार था, ये अलग बात है की उस किताब को मै आज तक पढ़ नही पाया। उपाध्याय रात मे किताब पढ़ने को देता और सुबह जब मै नहाने जाता तो इसी बीच वो अपनी किताब ले जाता, ख़ैर आज याद आई है, तो अब पढ़ लेंगे।
उस दिन खाना खाने के बाद, रेणु के "कितने चौराहे" मे उलझ गया आज़ादी के आस पास का बिहार जब गाँव से शहर के बीच का मानो भाव बस वो किताब ऐसी मिली की काफी सारे द्वंद रेणु के चक्रव्यूह मे फंस कर रह गए। अब मन मे किताब को लेकर उत्सुकता बढ रही थी की अचानक बिजली चली गयी शाम को मामूली बूँदा बाँदी भी हो गयी थी तो थोड़ा उमस बड़ी थी, बिजली के इंतज़ार मे काफी देर तक कमरे मे ही पसरा रहा, बालकनी से लड़को की आवाज़े आ रही थी सब अपने अपने कमरों से बाहर आ चुके थे, मेरे जैसे कुछ ही काहिल किस्म के रहे होंगे जो इतनी गर्मी मे भी कमरे से बाहर नही निकलते, तभी राजू ने आवाज लगाई अरे सर जी बाहर आइये देखिये एकदम मस्त हवा चल रही है, "राजू वर्मा चंदौली का था उसके पिता जी कृषि विभाग मे अफसर थे जब वो इन्हे पहली बार यहाँ छोड़ने आए थे तब मेरी मुलाकात हुयी थी उनसे" राजू के बुलाने पर लगा की काहिलपन छोड़ कर बाहर जाना चाहिए प्राकृतिक हवा का भी आनन्द लिया जाय किताब पढ़ने से उस हवा को नही समझा जा सकता,
बाहर सब कोई न कोई चुटकुला या कोई घटना इन्ही सब मे लगे रहे मै भी उपाध्याय जी से पूर्वाञ्चल की दबंगई की तमाम कहानियाँ सुनता रहा। मामला तो कई बार ऐसा हुआ की अजय रॉय, मुख्तार, शाहबूद्दीन, सब कहीं ना कहीं हमारे उपाध्याय जी के कृपा के पात्र थे इन सब का जीवन बचाने वाला और कोई नही हमारे पुरबिया उपाध्याय जी ही थे, माफ़िया को लेकर मेरा काफी ज्ञानवर्धन होता रहा
अगस्त की वो शाम बहुत भारी लग रही थी दोपहर मे झमाझम बारिश के बाद भी गर्मी अपने शबाब पर थी । उदास सी शाम थी क्षितिज की लाली भी स्याह होने लगी थी बादल सांस रोके पड़े थे जो तारे टिमटिमाने के लिए बेताब थे उनका भी दम काले बादलों के डर से घुट रहा था, आज समझ आ रहा था की पंछी कितने आज़ाद होते है कही भी जा कर किसी भी छत पे बैठ सकते है पर मै तो इंदुमति से मिलने उसके लॉज भी नही जा सकता था वहाँ आने के लिए भी उसने मना किया था बोला था जब कोई जरूरी काम हो तभी आना अब कैसे कहता की दो दिन से तुम्हें देखा नही है और दो दिन ना तो सब्जी लेने आती है और कोचिंग का वक़्त ऐसा था की उसी टाइम मुझे भी अपनी कोचिग जाना पड़ता था यही सब सोच रहा था की अगर आज नही आती तो घर जा कर ही मिलने के लिए बोल दूँगा, और कहूँगा की सब्जी रोज लिया करो बासी खा कर बीमार हो जाओगी, इतवार को फ़िल्म देखने तो जाना है कौन सी और कितने समय कुछ बताया नही है फिर बाद मे आंखे दिखायेगी ये नही वो वाली देखनी थी, यही सब सोचते हुये सिगरेट सुलगा रहा था, जैसे ही सिगरेट फेंकने के लिये पीछे मुड़ा तो देखा की राधा किताबों की दुकान मे कुछ ले रही थी, मै पास जाकर धीरे से बुलाया "इंदुमति इंदुमति"
राधा ने पलटते ही कहा सिगरेट खत्म हो गयी, तुम भी अंडे नही खाते सिगरेट पीते हो, अरे छोड़ो भी राजकुमारी अब ये बताओ पिछले दो तीन दिन से दिखी नही क्या कोई परेशानी है, राधा ने ना मे सिर हिला दिया और चाय की दुकान की तरफ बढ गयी मै भी उसके साथ चल दिया, चाय पीते पीते सिनेमा जाने के लिए बात करने लगा अब फिल्म को लेकर दोनों मे टकराव जैसी स्थिति बन सकती थी अगर मै उसकी बात न मानता, मुझे लग रहा था की सतीश कौशिक की "हमारा दिल आपके पास है" देखे उसे ना देखने के उसके पास दो बहाने थे एक तो उसे यह फिल्म से सीरियस फिल्म लग रही थी दूसरी की इसके लिए संगीत सिनेमा मुट्ठीगंज जाना पड़ता, तो उसका जो विकल्प था वो मै नही देखना चाहता था पर देखना पड़ा, इंदुमति के आदेशनुसार हमे सिविल लाइंस राजकरन टाकीज़ मे "हर दिल जो प्यार करेगा" देखनी थी और वहीं खाना खा कर आना है, अब इसके लिए अगर कोई बाइक मिल जाएगी तो सब सही हो जाता,,,,,,,,,